हर
दोपहर
जिंदगी जाने
कितने
ख्वाब बदलती है।
ज्यूं सुबह से
घटती है
परछाई,
ख्वाबों की
भी किस्मत
घटती सी
लगती है,
दिल में
कुछ
बैचेनी सी
लगती है,
आंखों में
इक
उदासी सी
छलकती है.....
ठीक दोपहर में
ख्वाबों की
परछाई लुप्त
प्राय सी
हो जाती है..
जैसे कि
सांस
अभी
थमने वाली हो....
मगर,
कहीं से
एक कतरा
उम्मीद
कुछ दिखाती है,
परछाई की
दिशा
दूसरी ओर
बननी
शुरू हुई है अब...
जिंदगी उस
ओर
दौड़ पड़ती है
उसी ख्वाब के साथ......
सांझ की परवाह
किए बिना,
पर सांझ पर
फिर
परछाई जानें
कहां खो
जाती है,
मगर
उदासी नहीं
अब
चेहरे पर,
रात चांदनी हो
तो
परछाई बना लेती है
जिंदगी,
और
अंधेरी भी
हो तो
बंद आंखों की
परछाईं में
ख्वाब देख लेती है कोई....
शायद
नियती से
वाकिफ हैं जिंदगी...
©® Karan kk
28_12_2017___05:00 AM
No comments:
Post a Comment