जैसे आसामां की
गोद में सोया
कोई ख्वाब,
पलकों के उस पार
कहीं कोई फुदकती है अब
आशाओं की डोर नहीं है
जो
बाँध लें उसको,
बस बंद आंखों में
कहीं दूर
आसमां के साये में
पंख फड़फड़ाते हुए से
नजर आते हैं।
इधर बादलों ने
घेरा है,
आंखों में समाकर कुछ
धुंधला सा
कर रहें तस्वीरों को,
मगर जब कभी
आंखें बरसकर साफ हो,
सब कुछ दिख
जाता है,
वहीं जो कई रोज पहले
किसी सपने में देखा करता था...
आसमां में बसते वो
दो तारे,
अक्सर एक दूसरे के
करीब आने
की
कोशिश में रहते, और
रात का घना अंधेरा
इस बात का गवाह होता....
मगर वक्त के
साथ
जानें क्यों
तारों की दूरियां बढ़ने लगी,
लगता कि कोई
एक तारे को
खींच रहा पीछे से....
मगर एक तारा अब भी
वहीं मौजूद, न किसी तारे से राग, न द्वेष,
बस निर्विघ्न
जिंदगी,
न किसी से कुछ कहता है, न सुनता है,
शायद अंधेरे से कुछ बात करता हो
अब भी।
©® करन जांगिड़
04.10.2018 .... 23:00PM
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