Sunday, 25 March 2018

उलझन कैसी है

उलझती जो जूल्फें तेरी
सुलझा भी लेता मैं,
मगर
क्या जिंदगी का
उलझना
जरूरी था।
............
बातों का उलझना
सुलझ
सकता है,
मगर
क्या कहानी का
उलझना
जरूरी था।
............
रिश्तो की तो
उलझन
सुलझें,
मगर
क्या नयनों का
उलझना
जरूरी था।
..............
ज़िक्र वक्त का
ही हो तो
फिर भी
जायज है,
मगर वक्त से परे
क्या परों में
उलझना जरूरी था,
...........
बात सिर्फ
मोहब्बत
की हो तो ठीक है,
मगर दुनिया बेगानी लगे
क्या ऐसे
इश्क में
उलझना जरूरी था।
..........
गांव शहर
जंगल
बग़ीचा
तो अच्छी बात है,
मगर आसमान में उड़ती
चिड़िया
के
दिल में
उलझना
जरूरी था।
©® जांगिड़ करन DC
25_03_2018___20:30PM

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