मन के बनायें घरौंदे,
न तेरे प्रेम की मिट्टी चाहिए,
ना ही तेरी रहमतों का पानी.....
कोई फर्क नहीं पड़ता
इसपर
तेरी नफ़रत की आंधियां का भी.....
मैं खुद ही
दीवार बना और
बिगाड़ लेता हूं,
कहां क्या रखना है सब
तुम्हारी इच्छा पर
बनाता हूं........
और जब तेरी याद
याद आती है,
कल्पनाओं का
झरोखा खोल
किचन में देख लेता हूं तुमको,
एक बारगी पुकार लूं तुम्हें
एक कप चाय,
पर नहीं,
मैं तो बस तुम्हें
बिन बताए तुम्हें देखना चाहता हूं.....
अक्सर तेरी याद में
खोया
किवाड़ की सिटकनी भूल जाता हूं मैं...
पर यह अच्छा है,
तुम्हें आने में कोई तकलीफ़ न होगी...
मन के घरौंदे है
और भागदौड़ जिंदगी की
हकीकत है,
अचानक तंद्रा टूटती है,
साथ ही टूट जाता है घरौंदा
और एक कमरे की चार दीवारों में कैद
मैं
फिर एक घरौंदा बनाता हूं!
©® KARAN KK
10_05_2018___5:20AM
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