Sunday, 22 October 2017

A letter to father by innocent child 2

Dear बाबुल,
कैसे हो आप?
हां, आप सोचेंगे कि यह भी कोई पूछने की बात है पर क्या करूं?
पूछना तो है ही ना, मुझे तो यह जानना है ना कि कैसे रह लेते हैं वहां आप हमारे बिन!
हां, बाबुल!!
आज से दो साल पहले मैंने दीपावली के दिन ही ख़त लिखा था पर आज तक जवाब नहीं आया आपका, मैं बैचेन होकर फिर से यह खत लिखने बैठ गया हूं।
आखिर आपने क्यों कोई जवाब नहीं दिया मेरे ख़त का?
इतने बदल से गए हो आप वहां जाकर?
या बहुत व्यस्तता रहती है?
जो भी हो,
पर इस खत को पढ़कर जवाब जरूर देना।
.......
सुनो बाबुल,
आपको बताया था ना पिछले ख़त में कि मैं थकने सा लगा हूं पर हिम्मत नहीं हारता,
चलते रहने की कोशिश करता रहूंगा।
देखिए उसी स्थिति (उससे और बदतर) के होते हुए भी दो साल तक चुपचाप पीड़ा सहता आया हूं.....
मगर अब यह असहनीय सा लगता है।
पता नहीं क्या मगर अंदर कुछ टूटता हुआ सा महसूस होता है,
मन उदास सा रहता है......
........
सुनो बाबुल,
इधर दीपावली पर चारों तरफ आतीशबाजी हो रही थी, दियों की रोशनी से गांव जगमगा रहा था, कहीं घरों पर लाइटिंग की गई थी, लोग तरह तरह की मिठाईयां लायें थे, पटाखों की गूंज दूर दूर तक सुनाई दे रही थी, लोगों के चेहरे पर खुशी साफ जाहिर हो रही थी, एक दूसरे को गले मिल बधाई दें रहे थे..............
मगर मैं बेबस होकर बस देख रहा था, दीपावली की यह खुशी मेरे लिए लिए नहीं है शायद,
इस जगमगाते माहौल के बीच मेरे दिल के किसी कौने में अंधकार सा छाया हुआ है,
यह दियों की रोशनी, ये जगमगाती लाइट्स, ये आतिशबाजी कोई भी उस जगह उजाला नहीं कर पाता है बाबुल....
सूरज की रोशनी भी वहां जाने से कतराती हैं शायद कि उस अंधकार में उसका खुद का वजूद न मिट जायें....
यह कोई एक दिन की बात नहीं है...
मैं हर रोज इसे महसूस करता हूं तब भी जब लोग मेरी किसी बात पर खिलखिलाते है क्योंकि मैं खुद कहता हूं कि The show must go on.
मैं हरदम मुस्कुराता हूं बाबा,
आंखों का पानी तो मैं कब का मार चुका हूं बस यह दिल में अंधकार है उसका कोई उपाय नहीं दिखता.....
डर एक बात का है कि यह अंधकार कहीं मेरी सोच के आगे न आ जाएं, कहीं यह अंधकार किसी और के जीवन पर भारी न पड़ जाएं.....
और सुनो बाबुल,
मैंने आज तक कोशिश की है कि जो आप चाहते थे वो करूं, वैसा ही बनूं!!
मैं पूरी ताकत से लगा हुआ हूं मगर कुछ बिखरता सा दिखता है मुझे यहां आंगन में,
कुछ मुरझाया सा लगता है वो फूल भी जो बस सात रंग की पंखुड़ियों से मिलकर बना है, मैंने बहुत कोशिश की है प्रेम का पानी, इज्जत का खाद, सुविधाओं की मिट्टी मगर....
मगर फूल फिर भी मुरझाया जाता है,
मैं अनुभव की हवा नहीं दे पाया हूं शायद... लाऊं कहा से?
कहीं पड़ा मिलता तो नहीं..
यह मुरझाता फूल बहुत तकलीफ़ देता है बाबा, मैं तो हरदम इसकी सुगंध चाहता था पर?
खैर,
आप भी क्या करो!!!
सुनो बाबा,
मैं ना फिर वही जिंदगी चाहता हूं, मैं फिर वही बचपन चाहता हूं, मैं फिर से दीपावली पर जलायें पटाखों से अधजले पटाखे ढूंढकर फोड़ने के लिए बेताब हूं,
मैं फिर से दीपावली पर बनी लापसी और चावल खाना चाहता हूं, मैं फिर से दीपावली की अगली सुबह जल्दी उठकर दिये इकट्ठे करना चाहता हूं ताकि तराजू बना सकूं.....
आप समझ रहे हैं ना,
मैं कोई जिद नहीं करूंगा वहां,
न नये कपड़ों की,
न नये जूतों की,
मैं स्कूल यूनिफॉर्म भी तीन चार साल तक चला लूंगा ना, मैं अपनी पढ़ाई पर भी पूरा ध्यान दूंगा....
पर.....
वो वक्त कहां लौटता है वो,
सुनो बाबा,
मैं हर उस आहट से जागता हूं कि शायद आप काम से लौट आये है, पर घड़ी बता रही होती है उस समय कि सुबह के 6 बजे है.....
और मैं,
सब भूलकर फिर भागने में लगता हूं बस एक ही बात दिमाग में रहती है कि शाम को फिर घर लौटना है....
.......
बाबा,
मैं हारने वालों में से नहीं हूं, पर बस कहीं उलझ कर रह गया हूं....
........
दियों के तराजू से चली जिंदगी,
ATM के शिकंजों में आ फँसी है।
दिनों दिन यें आंखें भी शुकुन के,
इंतजार में ही धँसी है।
........
हां,
सुनो बाबा,
मैं हर चेहरे पर खुशी देखना चाहता हूं, इसलिए अक्सर जोकर की तरह ही पेश आता हूं, नहीं दिखाता कि मेरे अंदर क्या चल रहा है......
बस एक लाइन कहता हूं...
The show must go on..
...
आपका
करन

19_10_2017____23:00PM

1 comment:

Alone boy 31

मैं अंधेरे की नियति मुझे चांद से नफरत है...... मैं आसमां नहीं देखता अब रोज रोज, यहां तक कि मैं तो चांदनी रात देख बंद कमरे में दुबक जाता हूं,...