Friday, 5 January 2018

A letter to God by Karan 2

प्रकृति ठंड की आगोश में दुबकी,
चिड़ियों के पंख भी खामोश है......
सूरज भी डरते डरते निकलें,
कोई सोया क्यों मदहोश है.....
।।।।।।।।।।
Dear कृष्णा,
पहले पहल तो यह कहुंगा मेरे जीवन की कहानी बहुत मजेदार लिखी गई है!! मुझे हराना भी चाहते हो पर हारने भी नहीं देते हो!!! मैं तुम्हें नहीं अपने उन माता-पिता को प्रणाम करना चाहुंगा जिन्होंने मुझ अधुरे से बालक को भी सीने से लगा कर अपनाया!!! (वो तो तुम्हारे ही चलायें वक्त के चक्र के शिकार हुए थे वरना मुझे यूं छोड़कर तो जानें की मर्जी उनकी भी नहीं थी यह तुम्हें एक पत्र में बता चुका हूं पहलें ही)।।।।।
पता नहीं वास्तविकता क्या है? घरवाले बताते हैं कि संवत् 2048 मार्गशीष माह का जन्म है मेरा न तारीख याद है ना तिथी.....
हां, विद्यालय में मैं उस समय जानें लगा था जब लगभग तीन साल का था ऐसा मेरे गुरुजी कहते हैं....
उन्होंने ही विद्यालय में 5 जनवरी, 1988 तारीख लिखी थी.... इस हिसाब से दो साल का अंतर तो यह... क्योंकि तीन साल के बच्चे का नाम नहीं लिख सकते थे.....
और!!! मुझे याद नहीं मगर उन गुरुजी ने बताया कि वो साइकिल से आते थे मेरे घर से मुझे खुद बिठाकर ले जाते थे..... वापस शाम को घर छोड़ते थे.......
शरीर से कमजोर मगर मन से काफी मजबूत मुझ जैसे बच्चे को बस क्या चाहिए था... हौंसला।
बचपन से गुरुजी ने, घरवालों ने और दोस्तों ने यहीं तो किया था........ मां के जानें के बाद तो पिताजी ने ऐसा रहना शुरू कर दिया जैसे की वहीं हमारी मां है!!!
मैंने कहीं एक लाइन पढ़ी थी कि पिता की जेब खाली हो तो भी वो बेटे को कभी मना नहीं करते.... हां, यह मैं बचपन में महसूस कर चुका हूं... एक गरीब परिवार से होते हुए भी (खुशियों की कीमत पैसा नहीं होती, बल्कि मन की स्थिति और इच्छा होती है).... 8th class में मैंने जब टॉप किया था तो पिताजी ने 50 रुपये के तरबूज खरीदकर सबको बांटे थे, सन् 2001 में। वो खुशियां, वो पल आज भी आंखों के सामने तेरते हैं.....
मगर जिंदगी इतनी आसान कहा थी.....
वक्त का क्रुर पहिया किसको कब कुचलेगा कौन जानता है!!
बस...
2003 में जिंदगी ने उस मोड़ पर खड़ा कर दिया जहां से चलना या न चलना..
चलना तो किधर चलना?
क्या किसी के पदचिन्हों पर ही चलना है या
अपनी राह खुद बनानी है....
यह सोचना ज़रूरी हो गया था!
मगर कंधे पर जब अपनों का हाथ आ जायें!! फिर डर किस बात का...
चलना तय था (मैं आज भी इस बात को स्वीकार करता हूं कि मैं उन हाथों का कर्ज इस जन्म में शायद नहीं चुका पाऊंगा).............
चलना तय था मगर सामने एक प्रश्न था खुद को साबित करना है????
किसी के लिए निर्णय पर खुद को खरा ठहराना???
नीचे धरती की तपती धूल और ऊपर सूरज की तेज किरणें, खुद को जलने से बचाना और.......
बनना ऐसा कि सूरज को भी चुनौती दें सकें.....
कुछ तो करना ही था!!!
सपने बड़े थे...
मंजिल दूर थी।।
कदम छोटे-छोटे तो थे ही अब लड़खड़ा भी रहे थे...
बस....
कंधे पर हाथ था....
इसलिए चलना जरूरी भी था।
खैर.....
मैं चला था!!
हर हाल में, पता नहीं क्या क्या सहन किया, कितनी रातें रोया होगा!!
मगर फिर भी.......
आखिर एक जगह पर आ ही गया जहां से अब सपाट रास्ता था, मंजिल भी साफ दिखती थी!!!
क्या करना था यह भी मालूम था.....
यात्रा की तैयारी भी कर ली थी!!!
मगर.....
तुम जो ठहरे मुझे हराने को आतुर......
कुछ तो करना ही था तुम्हें!!
भेज दिया था अपने दूत को; एक साल में बात न बनी तो अगले साल फिर.....
और मैं कोई महापुरुष या तुम्हारी तरह भगवान नहीं जो भटकूं नहीं.....
भटकना तय था...
रास्ते बदल गये..........
हालांकि रास्ते खूबसूरत थे मगर मंजिल तक तो न जाते!!!
पर.......
जिंदगी का आनंद कौन नहीं लेना चाहता
इसलिए मैं भी चला गया उधर......
पहाड़, पेड़ पौधे, घाटियां, वादियां, सूरज, चंदा, तारें, नीला आसमान, समंदर की लहरें, उफनती नदी, फल, फूल, हिरण, तितली, गिलहरी, गौरेया, मोर, कबुतर......
और सबसे भी खूबसूरत
"चिड़िया"
भला कैसे न भटकता.......
पर...
यह मालूम न था कि
यह रास्ता हमेशा न रहने वाला नहीं था...
इस रास्ते के किसी मोड़ पर
कुछ और बातें होनी थी,
शायद.....
वक्त को कुछ और
मंजूर था.....
भटकना भी था मेरा और
भटकने का राज़ भी रखना था!!!
पर!!!
भटका हुआ मैं फिर से किसी तरह संभालने की कोशिश में लगा और बहुत मुश्किल से ही सही मगर....
मैंने तय कर लिया था कि मैं अब फिर अपनी मंजिल की ओर चलूंगा, फिर से उस रास्ते पर चलूंगा जहां से मुझे अपनी मंजिल साफ साफ दिखाई दें!!!
मगर तुम्हें अब भी कहा मंजूर थी मेरी कोशिशें, तुमने फिर से कोई अड़ंगा करने की सोच ली.....
मैं वृक्ष जैसा था, कितनी टहनियों से अटा हुआ, हरा भरा, लहलहाता, जमीं से जुड़ा, पंछियों की हवा से खुश, बारिश के पानी को महसूस करता हुआ.......
मगर...
तुमने और वक्त ने साजिश की थी मेरे खिलाफ फिर से.....
मेरी शाखाओं को ही मेरे खिलाफ बहकाया, मेरे पतों को मुझसे अलग करने का खेल रचाया....
और......
देखो ना अब.....
मैं ठूंठ सा खड़ा, न कोई खुशी न कोई अहसास....
न बारिश से फर्क पड़ता है न गर्मी की तपन... ठंड भी एक उदास बुढ़िया सी गुजरती हुई लगती है...
और.....
झड़ें.....
आखिर कब तलक मुझको थामें रखेगी, उनको भोजन तो पत्तो से मिलना था और पतों को तो...
मैं बस मेरी और झड़ों की बेबसी पर आंसू बहाता हूं.....
और दुसरी ओर चिंता की इन आंसूओं में कहीं मंज़िल गुम न हो जायें......
फिर तुम्हें बता दूं कि चल रहा हूं......
धीमा ही सही...
मंजिल की परवाह नहीं अब मुझको, मुझे तो बस चलना है...
काल के उस पार तक भी....
बस याद रखना आप... मैं वो हूं जो जिंदगी के उस क्षण में भी सांस ढूंढ लेता हूं जहां कोई जिंदगी को अलविदा कह देता होगा.......
इसलिए!
तैयार रहिएगा.....
मैं तो तैयार हूं अब भी।।

Yours
Karan

05_01_2017__18:00PM

Birthday video on this link.

https://youtu.be/qYk28riiKbU

फोटो साभार सोनी टीवी (सीरियल सूर्यपुत्र कर्ण)

9 comments:

  1. Replies
    1. बहुत बहुत शुक्रिया

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  2. बेहद खूबसूरत व उत्साहवर्धक पत्र

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  4. क्या बोलूं...समझ नही आ रहा...
    आज तो आपका चरण वन्दन करने को जी चाहता है.....

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