जीत की दहलीज से मैं लौट आया हार को,
शुकुन तो मिला होगा अब सारे संसार को।
मन में अपने ही कितना द्वेष लिये चलते है,
क्यों युहीं दोष देते है भाई घर की दीवार को।
सुई लेकर सील लो उधड़े रिश्तों को अब तुम,
यह काम की नहीं दूर फेंको इस तलवार को।
तुम न जानें क्यों कुछ सुनातें नहीं आजकल,
कान मेरे तरस रहे 'स्वर' सुनने तेरी झंकार को।
समंदर में तो तुफानों से सामना होना है 'करन',
मैं मजबूत कर चुका हुँ नाव की पतवार को।
©®जाँगीड़ करन kk
18-11-2016__06:45AM
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