अंधेरे से गिरे शहर में क्या रोशनी निकल पायेगी,
जमीं हुई बर्फ यहाँ बेईमान की क्या पिघल पायेगी।
गुड़िया डरी सहमी सी कॉलेज जाती है यहाँ पे,
क्या कभी बैखोफ होकर भी ये चल पायेगी।
बेईमानों का दरबार लगा है अब तो हर जगह,
क्या साख इंसानियत की यहाँ पे बच पायेगी।
मैं कब से 'स्वर' की तलाश में भटकता रहा यहाँ,
पर वो तो गाँव के पनघट पर ही नजर आयेगी।
बहुत सालों बाद मैं वापस घर आया हुँ 'करन',
ये हवा भी मुझसे अब आगे न निकल पायेगी।
©® करन जाँगीड़
17/12/2015_21:15
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