Friday, 18 December 2015

A letter to swar by music 2

Dear swar,

देखो सुबह हो गई है। खिड़की से बाहर कौवे काँव काँव कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे यह तुम्हारे आने का संदेश दे रहे हो। पर मैं जानता हूं तुम नहीं आप आ पाओगी। मैं जानता हूं तुम्हें कई सारे काम जो करना है।

अरे हाँ!
तुम्हें तो बकरियां चराने भी जाना है, तुम्हारे घर के पीछे वाली पहाड़ी पर तुम आज भी बकरियाँ चराने जाती होगी ना। जाती तो होगी ही।

सुनो तो!!
तुम्हें याद है ना एक बार बकरी का बच्चा कहीं दूर निकल गया था,तो तुम उसके पीछे ऐसे भागी जैसे की तुम्हें ओलंपिक में मेडल जीतना हो और उस बकरी के बच्चे से तुम्हारी रेस हो रही हो।

उस वक्त जब मैं तुम्हें देख रहा था तो मुझे ऐसा लगा कि दो तुम दूर से मुझसे ही मिलने आ रही हो।
मैंने जब तुम्हारे बकरी के बच्चे को पकड़ा तब तक तुम पास आ चुकी थी।
फूली हुई सांस, बिखरी हुई जुल्फें, माथे पर पसीना,बहुत कमाल की लग रही थी ना तुम!
मैं तो बस देखता ही रह गया तुम्हें!!

वह आते ही तुमने जब मुझे देखा तो एक बारगी तुम भी मुस्कुरा करा दी थी फिर तुम्हें कुछ हसास हुआ तो अपना पल्लू ठीक किया।
फिर बकरी के बच्चे को मेरे हाथ से लेकर धन्यवाद कहा और हिरन की भाँति फलाँगें मारते हुए फिर से दौड़ भरी बकररियों के झुंड की ओर,
मैं तुम्हें उस वक्त भी देखता ही रहा वह सूरत वह नजारा आज मेरे जेहन में है।
हां थोड़ी दूर जाकर तुमने भी पलट कर वापस एक बार मुझे देखा तो था!

तुम्हें मालूम है ना उसके बाद भी मैं कई बार उस पहाड़ी के आस पास आया हूं सिर्फ तुम्हारी वो दौड़ देखने।

खैर बाद में तो...............

हाँ तो! सुबह सुबह बस तुम्हें ही सोच रहा हुँ। और यह कौआ अब भी काँव काँव कर रहा है......
पर मैं जानता हुँ.......

मजबूर तुम उधर बैठे हो,
मजबूर हम इधर बैठे है।
ये लकीरें हाथों की जो है,
फाँसले मिटने देती नहीं।।

तुम्हारा।।।।
संगीत...

©® करन जाँगीड़

18/12/2015_7:20

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