Monday 6 May 2019

परछाई 2

न कोई पर्दा
न कोई खिड़की ही थी,
चांद आज
बिल्कुल सामने था.....
बस नजरें झुकी थी
चेहरा खामोश था,
आंखों में उलझन थी,
पैरों में रूकावट थी,
हाथ किसी को बुलाते से लगे,
बालों का रंग जरा पक गया लगता है,
हां,
मगर एक बात
अब भी
वैसी ही थी,
बालों में लगी वो
गुलाबी पिन
आज भी गुलाबी ही थी,
हां,
साड़ी का रंग
देखने की फुर्सत मुझे कहा,
मैं तो बस
एकटक
गुलाबी पिन से
अलग होकर उड़ते
कुछ बाल
देख रहा था,
बालों में पड़ते वो
बल,
जो वक्त की
वक्राकार
नियति को दिखाए
मुझे चिड़ा रहे थे आज भी,
और मैं दूर खड़ा
हाथों से हवा में हर बार
जैसे
तुम्हारे उन बालों को उपर करने
की
कोशिश में लगा रहा,
जैसे वक्त को
बदलने की
कोशिश कर रहा था
मैं।
Karan
06_05_2019

9 comments:

  1. बहुत ही सुंदर ,
    यादें,,,, अकेला नही होने देती

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  2. वाह
    बेहद खूबसूरत
    वाकई गागर में सागर जैसी कविता

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया

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  3. वाह शानदार......वो गुलाबी पिन👌

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया सर

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  4. ये कल्पना है या वास्तविकता, समझ नही आता

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    1. कल्पना ही है, हकीकत तो मेरी ज़िंदगी भी नहीं है

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