Monday 28 December 2015

आवारा करन

धुंधली सी तस्वीर,
धुंधली सी आखें,
कुछ तो दिख रहा है मुझे।

ऊखड़ी हुई साँसें,
बढी हुई धड़कन,
कुछ तो सुनाई दे रहा है मुझे।

एक टुटी हुई आस,
न बुझने वाली प्यास,
कुछ तो अहसास हो रहा है मुझे।

एक उदास सा चाँद,
एक तन्हा सी रात,
कुछ तो खल रहा है मुझे।

एक मासूम सा स्वर,
एक आवारा करन,
कुछ तो इश्क हुआ है मुझे।

©®करन जाँगीड़
28/12/2015_22:40 night

Friday 25 December 2015

Just watching my moon

गली में अपनी वो आज रंगोली सजायेंगे।
इसी बहाने तो नाम मेरा वो लिख जायेंगे।।

इक अरसे से बेकरार था झलक पाने को,
आज दिल में तस्वीर उनकी ही सजायेंगे।

देखुँगा जब खुली जुल्फें उनकी तो,
ये कदम भी मेरे जरूर बहक जायेंगे।

युँ अचानक देख कर मुझको शहर में अपने,
लब उनके भी खुशी से कुछ तो लरजायेंगे।

ए चाँद आज तू जरा साथ देना 'करन' का,
तेरी चाँदनी में हम 'स्वर' को निहार पायेंगे।

©® करन जाँगीड़
25/12/2015_21:55 evening

Thursday 24 December 2015

A challenge to time

अजीब सी किस्मत लिखी है तुने मेरी,
पर मुझे कतई मंजूर नहीं है हार मेरी।

ए खुदा बस तुने अपनी ही चली हमेशा,
नहीं देखी आँखों में बसी बेबसी मेरी।

बाबा मेरे महल बना रहे है अमीरों के,
पुरी जो करनी है सारी ख्वाहिशें मेरी।

माँ अक्सर पहले ही खा लेती है खाना,
सहन नहीं होती है उससे यह भूख मेरी।

कह दो 'करन' वक्त से रफ्तार बढ़ा लें यह,
भारी पड़नी है उस पर चहलकदमी मेरी।

©® करन जाँगीड़
24/12/2015_06:30 morning

Wednesday 23 December 2015

हारा नहीं हैरान हुँ मैं

बेशक,
तुम अभी
कई कदम आगे हो
जीत की ओर
अग्रसर

व्याकुल हो
जीतने को

पर

पर मुझे मालुम है
जीत से दो कदम पहले
तुम ठिठक जाओगी
एक पल के लिये
मुड़ के देखोगी मुझे
कितनी दूर खड़ा हुँ
क्यों नहीं दौड़ रहा हुँ

तुम्हारे जहन में
आयेगा एक पल
कि रूक जाऊँ यहीं
मेरे इंतजार में।

पर न जाने क्यों
फिर तुम बढ़ चली
लाइन के उस पार

अरे!!
यह क्या!!
अब तुम क्यों हैरान हो?
जीत तो गई ना!
।।
कह तो रहा हुँ
तुमसे

पर जानता हुँ
यह भी
हाँ
तुम
हार गई हो।
हार गई हो
मुझसे
हार गई हो खुद से भी।

©® करन जाँगीड़
23/12/2015_3:00 morning

Friday 18 December 2015

ओ हमजोली

आ हमजोली तेरे पहलुँ में सर रख के सो जाऊँ,
आज जमीं आसमाँ मिलने को है सबको बताऊँ।

कोई बात मौसम के मिजाज की हम कर लें,
आ सारी फिजाँ को अब हम बाहों में भर लें।
तुम हिरणी के बच्चे को पकड़ लेना जरा तो,
संग उसके पलों को हम तस्वीरों में कैद कर लें।
तेरी हिरणी सी आँखों में वहीं पर मैं खो जाऊँ ।
आज जमीं........................................

आओ कि इस झील में कुछ अठखेलियाँ कर लें,
इन मछलियों से भी जरा दिल की बात कर लें।
बैठ कर आम की छाँव में अरे ओ हमजोली,
सपनों की दुनियाँ में कुछ तो नये रंग भर दें।।
रख तु मेरी गोद में सर मैं तेरी जुल्फें सुलझाऊँ।
आज जमीं....

तेरी हथेली पे रख दुँ मैं हथेली अपनी,
फिर महसूस करूँ तेरी साँसों की धमनी।
चुम लुँ तेरे लबों को कुछ इस तरह से,
जैसे मिटानी हो बरसों की प्यास अपनी।।
फिर लबों से करन 'स्वर' तेरा ही गुनगुनाऊँ।
आज जमीं......................................

©® करन जाँगीड़
18/12/2015_22:10

A letter to swar by music 2

Dear swar,

देखो सुबह हो गई है। खिड़की से बाहर कौवे काँव काँव कर रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे यह तुम्हारे आने का संदेश दे रहे हो। पर मैं जानता हूं तुम नहीं आप आ पाओगी। मैं जानता हूं तुम्हें कई सारे काम जो करना है।

अरे हाँ!
तुम्हें तो बकरियां चराने भी जाना है, तुम्हारे घर के पीछे वाली पहाड़ी पर तुम आज भी बकरियाँ चराने जाती होगी ना। जाती तो होगी ही।

सुनो तो!!
तुम्हें याद है ना एक बार बकरी का बच्चा कहीं दूर निकल गया था,तो तुम उसके पीछे ऐसे भागी जैसे की तुम्हें ओलंपिक में मेडल जीतना हो और उस बकरी के बच्चे से तुम्हारी रेस हो रही हो।

उस वक्त जब मैं तुम्हें देख रहा था तो मुझे ऐसा लगा कि दो तुम दूर से मुझसे ही मिलने आ रही हो।
मैंने जब तुम्हारे बकरी के बच्चे को पकड़ा तब तक तुम पास आ चुकी थी।
फूली हुई सांस, बिखरी हुई जुल्फें, माथे पर पसीना,बहुत कमाल की लग रही थी ना तुम!
मैं तो बस देखता ही रह गया तुम्हें!!

वह आते ही तुमने जब मुझे देखा तो एक बारगी तुम भी मुस्कुरा करा दी थी फिर तुम्हें कुछ हसास हुआ तो अपना पल्लू ठीक किया।
फिर बकरी के बच्चे को मेरे हाथ से लेकर धन्यवाद कहा और हिरन की भाँति फलाँगें मारते हुए फिर से दौड़ भरी बकररियों के झुंड की ओर,
मैं तुम्हें उस वक्त भी देखता ही रहा वह सूरत वह नजारा आज मेरे जेहन में है।
हां थोड़ी दूर जाकर तुमने भी पलट कर वापस एक बार मुझे देखा तो था!

तुम्हें मालूम है ना उसके बाद भी मैं कई बार उस पहाड़ी के आस पास आया हूं सिर्फ तुम्हारी वो दौड़ देखने।

खैर बाद में तो...............

हाँ तो! सुबह सुबह बस तुम्हें ही सोच रहा हुँ। और यह कौआ अब भी काँव काँव कर रहा है......
पर मैं जानता हुँ.......

मजबूर तुम उधर बैठे हो,
मजबूर हम इधर बैठे है।
ये लकीरें हाथों की जो है,
फाँसले मिटने देती नहीं।।

तुम्हारा।।।।
संगीत...

©® करन जाँगीड़

18/12/2015_7:20

Thursday 17 December 2015

मेरा गाँव मेरी जान

अंधेरे से गिरे शहर में क्या रोशनी निकल पायेगी,
जमीं हुई बर्फ यहाँ बेईमान की क्या पिघल पायेगी।

गुड़िया डरी सहमी सी कॉलेज जाती है यहाँ पे,
क्या कभी बैखोफ होकर भी ये चल पायेगी।

बेईमानों का दरबार लगा है अब तो हर जगह,
क्या साख इंसानियत की यहाँ पे बच पायेगी।

मैं कब से 'स्वर' की तलाश में भटकता रहा यहाँ,
पर वो तो गाँव के पनघट पर ही नजर आयेगी।

बहुत सालों बाद मैं वापस घर आया हुँ 'करन',
ये हवा भी मुझसे अब आगे न निकल पायेगी।

©® करन जाँगीड़
17/12/2015_21:15

Monday 7 December 2015

यह कैसा स्वर

तुमने ही तो कहा था कभी राह मे,
चलो संग संग कुछ ख्वाब सजाते है।

जाना तो उसी मंजिल पर है इक दिन,
कदम हम अब साथ साथ बढ़ाते है।

कुछ शब्द तुम चुनो कुछ संगीत मैं दे दुँ,
फिर वो ग़ज़ल प्यार की हम गुनगुनाते है।

मालुम न था कि रास्ते मैं मोड़ भी आते है,
अक्सर उन मोड़ों पर स्वर युँ बदल जाते है।

तुम्हारे स्वर में यह उदासी कैसी 'करन',
दोस्त मेरे मुझे कुछ अब युँ भी चिढ़ाते है।

©® करन जाँगीड़
07/12/2015(16:45)

Saturday 5 December 2015

एक स्वर तुम हो

दीवारें दिल की रंगों से पूरी अभी पोती ही नहीं।
बिन तुम्हारे कभी इसकी दिवाली होती ही नहीं।।

बेशक मेरी ही आँखों का तो कसूर है यह,
बिन तुम्हारे साथ के ये कभी रोती ही नहीं।

कहाँ गई वो तुम्हारी नाजुक नाजुक सी अदायें,
क्यों क्या अब ख्यालों में मेरे तु खोती ही नहीं।

माना तुम ख्वाब में तो आ ही जाओगे मेरे,
पर ये आँखें है मेरी न जाने क्यों सोती ही नहीं।

हवायें भी हैरान परेशान है आजकल 'करन',
क्यों अब पहले सी खुशबुँ यहाँ होती ही नहीं।

©®जाँगीड़ करन

Wednesday 2 December 2015

A letter to THe GOD by Karan

मैं चाहता हुँ कि आप यह पत्र अवश्य पढ़े पर पढ़ने से पहलें यह जान लें....
पहला, पत्र की सारी बातें मेरी व्यक्तिगत सोच ह इसका किसी से कोई संबंध नहीं है। कोई धार्मिक या व्यैक्तिक ठैस पहुँचे उसके लिये क्षमा।।
दुसरे, कोई संवेदनापूर्ण कमेंट न करें।

A letter to the God by me....

प्रणाम प्रभु,

मैं करन हुँ!!
पहचाना?
हाँ, वहीं करन हुँ।।
याद करो कोई 25 वर्ष पहले तुमने मुझे धरती पर भेजा था। भेजने का फैसला तुम्हारा सही या गलत था यह मैं नहीं कहता!!!
पर मैं तो तुम से यह पुछता हुँ कि क्या तुमने कुछ गलत नहीं किया?
क्या तुम्हारी कारीगिरी में कोई दोष आ गया था उस वक्त?
या तुम्हारे पास संसाधनों की कमी थी!
खैर!! तुमने जैसे तैसे अपना काम तो कर दिया! मुझे धरती पर भेजकर छुटकारा पाया ना तुमने??

हाँ!! आज इतने सालों बाद तुम्हैं लिख रहा हुँ कि मैं सही सलामत पहुँच गया था।
बस एक बात से हैरान था कि तुमने मुझ में कमी क्यों रख दी? हैरान भी और दुखी भी!
करूँगा क्या मैं इस हालत में यहाँ?
पर जैसा नियम है संसार का कि चलना है मैं भी चल पड़ा जिंदगी की राह पर।
ठीक उस पंछी की उड़ान की तरह जिसका एक पर काट दिया गया हो और उड़ने के लिये छोड़ दिया हो।
मैं भी तुम्हारी बनाई इस दुनियाँ में चलने लगा था। पता है आसपास के लोग मुझे कौतुहल भरी नजरों से देखते थे कि जैसे मैं इंसान न होकर आठवाँ अजुबा हुँ।
पर तुम्हें एक बात का धन्यवाद जरूर दुँगा(आभार व्यक्त नहीं कर रहा हुँ) कि तुमने मुझे अच्छे इंसान के घर जन्म दिया जिन्हें मैं गर्व से माँ-बाप कह सका! वो भी तुम्हारे द्वारा सताये हुए थे पर उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कुराहट रहती थी।। बिना किसी हिचकिचाहट के मुझे अपनाया!
साथ ही मुझे सीखाना भी शुरू कर दिया कि दुनियाँ में कैसे जीना है!!!
पर
पर
तुम्हारे दिमाग की मैं क्या कहुँ?
शायद शतरंज खेल खेलने के मूड में थे तुम मेरे साथ।
और चाल भी बहुत शातिर!!
यकींन नहीं हुआ मुझे!!
मात्र सात साल का था मैं, क्या मुझे माँ की जरूरत नहीं थी??
ओहहह।।
तुम्हें तो मुझे हराना था ना! कुछ भी मंजूर था तुम्हें!
और मुझे उस समय ऐसा लगा कि जैसे मेरा एक हाथ भी काट दिया गया हो।
ह ह ह ह।।
फिर भी न जानें क्या मुझे खींच रहा था आगे की ओर।
चलना मंजूर थी मुझे!
मेरे पिता बहुत जिंदादिल इंसान थे, पूरी कोशिश करते कि मुझे माँ की कमी महसूस न हो! और साथ ही यह भी अहसास नहीं होने देते कि मैं आम मनुष्य कि जैसे काम नहीं कर सकता! हर परिस्थिति में मेरे साथ थे वो।
हमेशा आगे ही बढ़ने का हौंसला दिया था।
मुझे पूरा भरोसा था कि मेरी जीत पर वो बहुत खुश होंगे!!!!
ह ह ह ह।।
लेकिन तुम
हाँ प्रभु तुम!!
तुम तो तुम्हारे गेम पर थे ना!!
मेरी जीत से शायद तुम्हारे वजूद को खतरा महसूस हो रहा था।
हर हाल में तुम्हारा उद्देश्य मुझे हराना ही था।
हाँ लगभग 13 साल का था उस समय मैं।
तुम्हारी चाल तुमने चल दी!!
अब भला मैं क्या करता??
तुम्हारी नजरों में तो मेरी हार निश्चित थी।
लेकिन उस समय भी मुझे कुछ ओर ही मंजूर था।
कंधे पर मेरे एक हाथ आया था(धन्यवाद उसके लिये फिर से)।
बस फिर क्या मैं चल पड़ा फिर से!!
रेंगते हुए ही सही पर दिल बस जीतने का जुनुन था।
लेकिन तुम कहाँ मानने वाले थे और भी तुम्हारी बहुत चालें हुई है मुझे गिराने की।
सब यहाँ नहीं बता रहा हुँ। अगर बताई तो शायद दुनियाँ का तुम पर से विश्वास न उठ जायें।
बस तुम इतना सा जान लो(जानते तो हो ही) कि कैसे भी सही पर अब मैं दुनियाँ के साथ चल रहा हुँ। कभी गिरा भी तो फिर से उठ खड़ा हुआ लेकिन रूकने का नाम नहीं लिया!
न कोई गम था न खुशी!!
संवेदनाओं को एक ताक रख चुका था मैं।।
बस जुनुन था।।
लेकिन।।।
लेकिन यह क्या!!!!
जब लगभग मैं मंजिल के करीब आने को था तो तुमने अजीब सी यह चाल और चल दी!!
और इस चाल में मैं खुद बुरी तरह से ऊलझ गया हुँ!
मैं स्वीकार करता हुँ कि इस चाल का मेरे पास फिलहाल तो मेरे पास भी कोई हल नहीं है।
।।
कभी तो लगता है कि अब हारने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है।
पर फिर भी मैं कोशिश में हुँ कि कभी तो मेरी दहलीज पर जीत कदम रखेगी...
तब शायद.......
छोड़ो इन बातों ज्यादा अच्छा नहीं लगेगा।

सुनो प्रभु,
वैसे मेरा जहाँ तक इरादा है तो मैं जीतकर तुम्हारे पास आऊँगा! पर मानाकि मैं हारा भी तो तुम्हारे पास आकर जिन सवालों के जवाब चाहुँगा,
तुम नहीं दे पाओगे,
सिर्फ नजरें नीची रहेगी तुम्हारी...
तुम्हें उस समय तो हारना ही है...
फिर से प्रणाम स्वीकार करें..................

हाँ तुम्हारे माध्यम से ही मैं तुम्हारी इस कृति(संसार) से भी सभी विकलाँग साथियों की ओर से कहना चाहुँगा.....
क्यों तुम हैरान हो?
क्या मेरा यह रूप
तुम्हारी समझ से
परे है?
क्यों तुमने सिर्फ मुझे
अपनी संवेदनाओं के
काबिल समझा है?
क्या मैं तुम्हारी संवेदनाओं
के ही काबिल हुँ।
पर तुमने कभी
सोचा है
कटे हुए परों से भी
पंछी उड़ान भर लेता है
या दिल में उनके यहीं
अरमान होते है कि
वो भी उड़े दूर तक
सब पंछियों की तरह,
नाप लें सारी धरती,
यह आकाश भी।
पर उन्हें कभी जरूरत
नहीं रही संवेदनाओं की,
बस इक हौंसला चाहिये।
बस इक हौंसला!!
क्या तुम दे पाओगे??

                     शायद तुम्हारा
                           करन
Karan dc(2/12/2015-19:40)

Alone boy 31

मैं अंधेरे की नियति मुझे चांद से नफरत है...... मैं आसमां नहीं देखता अब रोज रोज, यहां तक कि मैं तो चांदनी रात देख बंद कमरे में दुबक जाता हूं,...