Sunday 28 January 2018

जिंदगी तुम से है

जिंदगी.....
बिलखते बच्चे को
सीने से लिपटाकर
चुप कराती
मां
के फटे आंचल की
दास्तां............
.............
जिंदगी.....
बच्चे को
कंधे पर
बिठाकर कर
घुमाते
पिता के
पैरों की थकान....
.............
जिंदगी......
फिसलते
भाई की खातिर
जोखिम उठाते
इक अपंग
की जान......
..........
जिंदगी......
दरकते
रिश्तों को
घावों से
रोकने का
सिसकता सा
मान.........
......
जिंदगी....
बगैर तेरे
भटकता राही
जैसे
मरूथल के
दरमियान.....
.......
जिंदगी......
जो समझा नहीं
कोई
करन के
कुछ लफ़्ज़ों
में
बहकता सा
इमान.....
.......
©® जांगिड़ करन kk
28_01_2018____18:00PM

Tuesday 16 January 2018

A letter to swar by music 44

Dear Swar,
......
जिंदगी तेरी महफ़िल फिर छोड़ आये है,
तनहाई में महबूब को महसूस करने आये है।
........
सुनो प्रिये,
सर्दी का असर कुछ कम होने लगा है अब, यह अभी थोड़ी सुहानी सी लगने लगी है, रात भी अब कम लंबी होने लगी है, सूरज मामू भी आंखें खोल जल्द ही आ जाते हैं, खेतों में सरसों के पीले फूल मनोहर दृश्य प्रस्तुत करते हैं, पगडंडी पर जगह जगह पड़े पत्थरों और मिट्टी के छोटे छोटे ढेर कुछ अलग ही अहसास कराते हैं जैसे किसी ने सपनों का संसार यहां बसाया हो, शाम ढले घर लौटती गायों का स्वर भी कितना मनोरम लगता है, और रात आज अमावस्या की थी पर.......
मैं जब भी छत पर आता हूं अकेले में मुझे तो चांद नजर आ ही जाता है....
........
छितरी है चांदनी जो दिल की गहराई तक,
रात का अंधेरा भी उसको सुहाना लगें।।।।
........
खैर,
जिंदगी के अपने उसूल है जो हम सब पर लागू होते हैं, समय के साथ-साथ सालभर में खेल, खान-पान, तौर तरीके बदल जाते हैं, यह वक्त का ही तो फेर था....
अभी मकर संक्रांति थी, सभी पतंग उड़ानें में व्यस्त थे... मैंने इससे पहले कभी पतंग नहीं उड़ाई थी!!!
तुम्हें तो मालूम है ना कि मैं तो बचपन से गिल्ली डंडा, सतोलिया या कंचे खेलने में माहिर था यह पतंग उड़ाना कभी सीखा ही नहीं।
पर क्या करूं,
जब सब उड़ा रहे थे तो मुझे भी उड़ाना ही था, शूरु में तो पतंग उड़ाना भी ऐसा लगा जैसे किसी प्लेन को क्रेश होने से बचाना पर जल्दी ही मैं सीख गया.....
मकर संक्रांति के दिन यूंही छत पर से पतंग उड़ा रहा था मैं आकाश साफ था हवायें भी शांत थी.....
बस चारों तरफ नजर आ रहे थे तो पतंग, ये कटी, वो कटी, अरे देखो वो इतनी ऊपर, अरे यह भी कट गई।
रंग बिरंगी पतंगों से सजा आकाश किसी दुल्हन से कम नहीं लग रहा था और इन पतंगों पर पड़ती सूरज की किरणें तो इसके रूप पर चार चांद लगा रही थी।
और मैं तो पतंग उड़ाते उड़ाते इसी ख्याल में खो गया कि जैसे कि यह तेरा रूप हो.........
खैर,
देखो तो!!!!!
मैं जब पतंग उड़ा रहा था तो पतंग बार बार तुम्हारे घर की दिशा की ओर जा रहा था,
पता नहीं पतंग को कहां से सब कुछ पता चल गया कि तुम्हारे बिन यहां सब सूना सूना है.....
मैं बार बार खींच कर दूसरी तरफ मोड़ता हूं पर यह सब पतंगों से अलग होकर बार बार फिर से उसी तरफ आ जाता है शायद यह भी मेरी तरह तो नहीं हो गया है तुम्हें देखने की मंशा लिए हो।
मैं भला क्यों मना करता मैंने भी ढील दे दी जितनी उसने चाही...... और वो सुदूर आकाश में तुम्हारे घर की दिशा में कहीं खो गया पता नहीं बहुत दूर जाने से नज़र भी नहीं आ रहा था मैंने भी फिर उसकी डोर को खुद ही काट दिया.....
देखना तुम जरा कहीं आया हो तो..
शायद उस तालाब किनारे आकर इमली के पेड़ पर अटक गया हो,
या
आपकी स्कूल की छत पर आ गिरा हो,
या
उस पगडंडी पर जा गिरा हो जिस पर से गुजरते हुए आप पनघट पर पानी लेने जाती है।
हां,
देखना जरा......
पतंग पर मुस्कुराता हुआ एक चेहरा बना हुआ है और उसकी पूंछ भी तुम्हारे सबसे प्रिय रंग की लगाई है मैंने।
हां....... मिल जाए तो संभाल कर रखना!!!
।।।।।।।।।
यह तो हुई मेरी बात,
तुम सुनाओ,
मैंने सुना है आजकल तुम बहुत ही गंभीर रहने लगी हो, मुझे तो हंसी आती है सुनकर कि गंभीर और वो भी तुम।
पर सुना है तो सच ही होगा......
पर सुनो,
इधर वक्त मेरे साथ बहुत ही गंभीर है एक पल, एक दिन या एक साल सब ही मेरी परिस्थिति का मखौल उड़ाते हैं....
मुझे हराने की बात करते हैं, मगर सुनो ना!!!!
मेरी ताकत तो तुम हो ना,
मैं तुम्हारे दम पर ही तो अड़ा हुआ हुं....
बस, मेरे हारने से पहले लौट आना।
!!!!!
तुम्हें पुकारती है जिंदगी की आस कोई,
फकत श्वास से जीना दूभर सा लगें......
!!!!!
हां,
अपना और अपनी मम्मी का ख्याल रखना।

With love
Yours music

©® जांगिड़ करन kk
16_01_2018___6:00AM

Wednesday 10 January 2018

गीत कोई

जब जिंदगी छीलने लगे
खुद ही
खुद के घावों को....
अक्सर ऐसी
रातों में
गीत कोई निकलता है।......
................
बर्फीली जो
चलें हवाएं
धुंध गहरी सी
जब छाएं......
ऐसे ठंडे
मौसम में भी
फूल कोई खिलता है।........
...............
तपती दोपहरी
तन पे बोझा
लंबी दूरी
यौवन खोजा.........
ऐसे जीवन
का भी अपना
रूप कोई निखरता है।.........
................
जा दूर गिरी
पतंगा वो जो
अभिमानी सी
लहराई थी.......
अल्फाजों के पेंच
में उलझा
कदम कोई
फिसलता है..........
................
मैं तो करन बस
आवारा
जानें किसकी
राह चलूं?
जब भी मंजिल
दिखती है
वक्त ये
राहें बदलता है.........

©® जांगिड़ करन KK
10__01__2018____20:00PM

Friday 5 January 2018

A letter to God by Karan 2

प्रकृति ठंड की आगोश में दुबकी,
चिड़ियों के पंख भी खामोश है......
सूरज भी डरते डरते निकलें,
कोई सोया क्यों मदहोश है.....
।।।।।।।।।।
Dear कृष्णा,
पहले पहल तो यह कहुंगा मेरे जीवन की कहानी बहुत मजेदार लिखी गई है!! मुझे हराना भी चाहते हो पर हारने भी नहीं देते हो!!! मैं तुम्हें नहीं अपने उन माता-पिता को प्रणाम करना चाहुंगा जिन्होंने मुझ अधुरे से बालक को भी सीने से लगा कर अपनाया!!! (वो तो तुम्हारे ही चलायें वक्त के चक्र के शिकार हुए थे वरना मुझे यूं छोड़कर तो जानें की मर्जी उनकी भी नहीं थी यह तुम्हें एक पत्र में बता चुका हूं पहलें ही)।।।।।
पता नहीं वास्तविकता क्या है? घरवाले बताते हैं कि संवत् 2048 मार्गशीष माह का जन्म है मेरा न तारीख याद है ना तिथी.....
हां, विद्यालय में मैं उस समय जानें लगा था जब लगभग तीन साल का था ऐसा मेरे गुरुजी कहते हैं....
उन्होंने ही विद्यालय में 5 जनवरी, 1988 तारीख लिखी थी.... इस हिसाब से दो साल का अंतर तो यह... क्योंकि तीन साल के बच्चे का नाम नहीं लिख सकते थे.....
और!!! मुझे याद नहीं मगर उन गुरुजी ने बताया कि वो साइकिल से आते थे मेरे घर से मुझे खुद बिठाकर ले जाते थे..... वापस शाम को घर छोड़ते थे.......
शरीर से कमजोर मगर मन से काफी मजबूत मुझ जैसे बच्चे को बस क्या चाहिए था... हौंसला।
बचपन से गुरुजी ने, घरवालों ने और दोस्तों ने यहीं तो किया था........ मां के जानें के बाद तो पिताजी ने ऐसा रहना शुरू कर दिया जैसे की वहीं हमारी मां है!!!
मैंने कहीं एक लाइन पढ़ी थी कि पिता की जेब खाली हो तो भी वो बेटे को कभी मना नहीं करते.... हां, यह मैं बचपन में महसूस कर चुका हूं... एक गरीब परिवार से होते हुए भी (खुशियों की कीमत पैसा नहीं होती, बल्कि मन की स्थिति और इच्छा होती है).... 8th class में मैंने जब टॉप किया था तो पिताजी ने 50 रुपये के तरबूज खरीदकर सबको बांटे थे, सन् 2001 में। वो खुशियां, वो पल आज भी आंखों के सामने तेरते हैं.....
मगर जिंदगी इतनी आसान कहा थी.....
वक्त का क्रुर पहिया किसको कब कुचलेगा कौन जानता है!!
बस...
2003 में जिंदगी ने उस मोड़ पर खड़ा कर दिया जहां से चलना या न चलना..
चलना तो किधर चलना?
क्या किसी के पदचिन्हों पर ही चलना है या
अपनी राह खुद बनानी है....
यह सोचना ज़रूरी हो गया था!
मगर कंधे पर जब अपनों का हाथ आ जायें!! फिर डर किस बात का...
चलना तय था (मैं आज भी इस बात को स्वीकार करता हूं कि मैं उन हाथों का कर्ज इस जन्म में शायद नहीं चुका पाऊंगा).............
चलना तय था मगर सामने एक प्रश्न था खुद को साबित करना है????
किसी के लिए निर्णय पर खुद को खरा ठहराना???
नीचे धरती की तपती धूल और ऊपर सूरज की तेज किरणें, खुद को जलने से बचाना और.......
बनना ऐसा कि सूरज को भी चुनौती दें सकें.....
कुछ तो करना ही था!!!
सपने बड़े थे...
मंजिल दूर थी।।
कदम छोटे-छोटे तो थे ही अब लड़खड़ा भी रहे थे...
बस....
कंधे पर हाथ था....
इसलिए चलना जरूरी भी था।
खैर.....
मैं चला था!!
हर हाल में, पता नहीं क्या क्या सहन किया, कितनी रातें रोया होगा!!
मगर फिर भी.......
आखिर एक जगह पर आ ही गया जहां से अब सपाट रास्ता था, मंजिल भी साफ दिखती थी!!!
क्या करना था यह भी मालूम था.....
यात्रा की तैयारी भी कर ली थी!!!
मगर.....
तुम जो ठहरे मुझे हराने को आतुर......
कुछ तो करना ही था तुम्हें!!
भेज दिया था अपने दूत को; एक साल में बात न बनी तो अगले साल फिर.....
और मैं कोई महापुरुष या तुम्हारी तरह भगवान नहीं जो भटकूं नहीं.....
भटकना तय था...
रास्ते बदल गये..........
हालांकि रास्ते खूबसूरत थे मगर मंजिल तक तो न जाते!!!
पर.......
जिंदगी का आनंद कौन नहीं लेना चाहता
इसलिए मैं भी चला गया उधर......
पहाड़, पेड़ पौधे, घाटियां, वादियां, सूरज, चंदा, तारें, नीला आसमान, समंदर की लहरें, उफनती नदी, फल, फूल, हिरण, तितली, गिलहरी, गौरेया, मोर, कबुतर......
और सबसे भी खूबसूरत
"चिड़िया"
भला कैसे न भटकता.......
पर...
यह मालूम न था कि
यह रास्ता हमेशा न रहने वाला नहीं था...
इस रास्ते के किसी मोड़ पर
कुछ और बातें होनी थी,
शायद.....
वक्त को कुछ और
मंजूर था.....
भटकना भी था मेरा और
भटकने का राज़ भी रखना था!!!
पर!!!
भटका हुआ मैं फिर से किसी तरह संभालने की कोशिश में लगा और बहुत मुश्किल से ही सही मगर....
मैंने तय कर लिया था कि मैं अब फिर अपनी मंजिल की ओर चलूंगा, फिर से उस रास्ते पर चलूंगा जहां से मुझे अपनी मंजिल साफ साफ दिखाई दें!!!
मगर तुम्हें अब भी कहा मंजूर थी मेरी कोशिशें, तुमने फिर से कोई अड़ंगा करने की सोच ली.....
मैं वृक्ष जैसा था, कितनी टहनियों से अटा हुआ, हरा भरा, लहलहाता, जमीं से जुड़ा, पंछियों की हवा से खुश, बारिश के पानी को महसूस करता हुआ.......
मगर...
तुमने और वक्त ने साजिश की थी मेरे खिलाफ फिर से.....
मेरी शाखाओं को ही मेरे खिलाफ बहकाया, मेरे पतों को मुझसे अलग करने का खेल रचाया....
और......
देखो ना अब.....
मैं ठूंठ सा खड़ा, न कोई खुशी न कोई अहसास....
न बारिश से फर्क पड़ता है न गर्मी की तपन... ठंड भी एक उदास बुढ़िया सी गुजरती हुई लगती है...
और.....
झड़ें.....
आखिर कब तलक मुझको थामें रखेगी, उनको भोजन तो पत्तो से मिलना था और पतों को तो...
मैं बस मेरी और झड़ों की बेबसी पर आंसू बहाता हूं.....
और दुसरी ओर चिंता की इन आंसूओं में कहीं मंज़िल गुम न हो जायें......
फिर तुम्हें बता दूं कि चल रहा हूं......
धीमा ही सही...
मंजिल की परवाह नहीं अब मुझको, मुझे तो बस चलना है...
काल के उस पार तक भी....
बस याद रखना आप... मैं वो हूं जो जिंदगी के उस क्षण में भी सांस ढूंढ लेता हूं जहां कोई जिंदगी को अलविदा कह देता होगा.......
इसलिए!
तैयार रहिएगा.....
मैं तो तैयार हूं अब भी।।

Yours
Karan

05_01_2017__18:00PM

Birthday video on this link.

https://youtu.be/qYk28riiKbU

फोटो साभार सोनी टीवी (सीरियल सूर्यपुत्र कर्ण)

Thursday 4 January 2018

A letter to swar by music 43

Dear swar,
Happy New.........
& Also happy winter....
........
जिंदगी धुंध से
परे
जिंदगी को
खोजती है।
रात आंखों में
चांद
की
दस्तक
यह चांदनी
किसकी जो
नींद
खोलती है।
पर्दे पर
जो
हाथ लगा
यूं
लगा कि जैसे
घूंघट हो उठाया,
मैं तो बस
चांद देखता रहा,
वक्त की बातें
हैं
बेबसी
कहां बोलती है........
!!!!!!!!
हां........
तुम्हें आया कुछ समझ में......
मैं तो इतना ही कहना चाहूंगा कि गली में आज चांद निकला।
...…....
हां तो
सुनो ना पार्टनर......
कल रात थकान के बाद मैं गहरी नींद में सो रहा था, न सर्दी की परवाह ना ही परवाह थी वक्त के चलाये कुचक्र की!!!
बस......
आंखें बंद थी!!!!
कि अचानक.......
आंखों के सामने कुछ हिलता हुआ सा लगा.....
जैसे कोई खिड़की के पर्दे को
हिला रहा हो......
पर्दे की
आती ठंडी हवा ने
आंखों को
कैसा सुकून दिया.....
मैं जागते में उसे
बयां नहीं
कर सकता...... बस उस खिड़की की ओर नजर गड़ाए देखें जा रहा था!!!! और फिर..... हौले से एक हाथ पर्दे के इस पार आ पहुंचा था!!! हां, पहचानने में देर नहीं लगी मुझको!!!
न वो हाथ भूल सकता हूं न हाथ पर बंधी हुई घड़ी.....
घड़ी की चैन में दोनों ओर दिल की आकृति, हर कड़ी की अगली कड़ी से उलझी हुई अंगुली.....
जैसे कि दोनों दिलों को मिलाने की कोशिश में लगी हुई हो!!!!
और फिर.........
पर्दा हटा जैसे ही!!!
मेरे आंखों में एक चमक सी आई!! जैसे चांदनी की किरणें मेरे चेहरे से आ टकराई हो.......
पता है!!
उस वक्त घर की रेलिंग पर खड़ा खड़ा जानें किस ख्याल में खो गया कि गिरते गिरते ही बचा था!!!
।।।।।।।।।।।।
खैर......
बंद आंखों में सपने देखने का मजा ही कुछ और ही है....
वो भी देख लेता हूं जो शायद जागती आंखों से न पाऊं या न ही सोच पाऊं.....
अब देखो ना!!!!
उस वक्त खिड़की से झांक कर कुछ कहना चाह रही थी पर मैं किसी के साथ खड़ा था तो तुम्हें भी लाज आ गई....
बस तुम भी देखती रही मुझे और मैं तुमको...
और फिर.....
तुम्हें न जाने क्या सुझा कि छत से नीचे उतरकर मेरे घर की ओर चल दी, जानें क्या चल रहा था तुम्हारे मन में....
मैं तो बस तुम्हारे पीछे पीछे आ रहा था!!!
तुम्हारे स्वागत के लिए मुझे आगे होना चाहिए था पर जानें क्यों मैं पीछे रहा......
हां......
पीछे से तुम्हारे चलने के अंदाज को देखता रहा कि वाह... आज भी वही नटखटपन था....
खुलें बाल जब कंधे पर इधर उधर बिखरते हैं तब तो तुम गजब की लगती हो!!!
तुम घर पहुंच कर....
जानें क्या क्या करने वाली थी!!! मैं सोच सकता हुं,।
अरे यह क्या?
मोबाइल??
मेरा मोबाइल क्यों चैक क्यों कर कर रही थी? जानें तुम क्या ढूंढ रही थी उसमें?
कुछ मिला भी या?
खैर!!!
तसल्ली हो गई होगी तुम्हें भी.....
!!!!!!
मैं भी न।।
क्या लेकर बैठ गया हुं......
।।।। पर क्या करूं?
बंद आंखें जो देखती है वहीं तो तुम्हें लिख सकता हूं.....
जागती आंखों में तो तुम्हें देखें कितने बरस बीत गए गिनना मेरे बस में भी नहीं!!!
और मैं गिनता भी नहीं.....
बस......
इतना सा मालूम है नींद में होऊं या नहीं चेहरा हरपल तुम्हारा ही नजर आता है मुझे.....
........
खिड़की के उस पार भी
इस पार भी।।।
हवा से
खिड़की के खड़खड़ाने की आंधी
आवाज भी
तेरे होने का अहसास कराती है!!!
और कोई छाया सी
जब दिखती है
मैं
गुनगुना लेता हूं.....
।।।।
तुम आयें तो आया मुझे याद
गली में आज चांद निकला....
......
ठंड काफी है अपना ख्याल रखना!!!
......
With love
Yours
Music

©® Jangir Karan KK
04_01_2018___15:00PM

Monday 1 January 2018

नया साल मुबारक हो 3

आवाज पर
फ़िदा
जिंदगी को....
बदलते
साल में
सांसों का
लश्कर मुबारक हो......
.........
तन्हा रातों की
जागती आंखों को
ठंड से
कांपती
यादें
मुबारक हो.........
..........
अल सुबह
उनिंदी सी
नजरों को
चेहरा
किताबी मुबारक हो....
.........
बस
केवल
साल बदला है!!!
न तो
पदचिन्ह बदलें है
न ही
नींद
में आती
कदमों की
आहट
बदली है...
जिंदगी के
इस खेल में
फिर
नया साल मुबारक हो.....
©® जांगिड़ करन KK
01__01__2018___19:00PM

नया साल मुबारक हो 2

बदलना जब कुछ भी नहीं
किसका जश्न मनाऊं मैं......
.....
क्या मौसम में
तुमने करवट देखी है,
पिछली सर्द रातों की
कोई फितरत देखी है?
धुआं अब भी चारों ओर
कैसे उसको देख पाऊं मैं.....
बदलना जब..................
.........
रिश्तों के झंझावात में
उलझन क्या कम हो जायेगी?
बात बात पर या यूंही
मां की हंसी उड़ाई जायेगी?
बेटे की नजरों में कैसे
वो सम्मान देख पाऊं मैं......
बदलना जब....................
...........
क्या छलते मासूम चेहरे में
बदलने की हिम्मत आयेगी?
या राह चलती बालायें
युहीं छेड़ी जायेगी?
दिल के किसी कोने में क्या
भाई सा स्नेह पाऊं मैं.....
बदलना जब..............
...........
बदलना था जो वो बदल गया
अपने वादों से ही मुकर गया,
मन की पीड़ा समझें बिना,
परदेशी वो निकल गया!!
जज़्बातों की आंधी में
खुद को कैसे टिका पाऊं मैं.....
बदलना जब..................
...........
खुशियों की फिर भी तुम्हारी
दिल से यह दुआ रहेगी,
मेरा क्या है मेरे तो
दिल में तेरी याद रहेगी।
एक करन में बेसुरा सा
स्वर को मनाऊं मैं?
बदलना जब...............

©® जांगिड़ करन KK
01__01__2018____9:00AM

Alone boy 31

मैं अंधेरे की नियति मुझे चांद से नफरत है...... मैं आसमां नहीं देखता अब रोज रोज, यहां तक कि मैं तो चांदनी रात देख बंद कमरे में दुबक जाता हूं,...