Sunday 22 October 2017

A letter to father by innocent child 2

Dear बाबुल,
कैसे हो आप?
हां, आप सोचेंगे कि यह भी कोई पूछने की बात है पर क्या करूं?
पूछना तो है ही ना, मुझे तो यह जानना है ना कि कैसे रह लेते हैं वहां आप हमारे बिन!
हां, बाबुल!!
आज से दो साल पहले मैंने दीपावली के दिन ही ख़त लिखा था पर आज तक जवाब नहीं आया आपका, मैं बैचेन होकर फिर से यह खत लिखने बैठ गया हूं।
आखिर आपने क्यों कोई जवाब नहीं दिया मेरे ख़त का?
इतने बदल से गए हो आप वहां जाकर?
या बहुत व्यस्तता रहती है?
जो भी हो,
पर इस खत को पढ़कर जवाब जरूर देना।
.......
सुनो बाबुल,
आपको बताया था ना पिछले ख़त में कि मैं थकने सा लगा हूं पर हिम्मत नहीं हारता,
चलते रहने की कोशिश करता रहूंगा।
देखिए उसी स्थिति (उससे और बदतर) के होते हुए भी दो साल तक चुपचाप पीड़ा सहता आया हूं.....
मगर अब यह असहनीय सा लगता है।
पता नहीं क्या मगर अंदर कुछ टूटता हुआ सा महसूस होता है,
मन उदास सा रहता है......
........
सुनो बाबुल,
इधर दीपावली पर चारों तरफ आतीशबाजी हो रही थी, दियों की रोशनी से गांव जगमगा रहा था, कहीं घरों पर लाइटिंग की गई थी, लोग तरह तरह की मिठाईयां लायें थे, पटाखों की गूंज दूर दूर तक सुनाई दे रही थी, लोगों के चेहरे पर खुशी साफ जाहिर हो रही थी, एक दूसरे को गले मिल बधाई दें रहे थे..............
मगर मैं बेबस होकर बस देख रहा था, दीपावली की यह खुशी मेरे लिए लिए नहीं है शायद,
इस जगमगाते माहौल के बीच मेरे दिल के किसी कौने में अंधकार सा छाया हुआ है,
यह दियों की रोशनी, ये जगमगाती लाइट्स, ये आतिशबाजी कोई भी उस जगह उजाला नहीं कर पाता है बाबुल....
सूरज की रोशनी भी वहां जाने से कतराती हैं शायद कि उस अंधकार में उसका खुद का वजूद न मिट जायें....
यह कोई एक दिन की बात नहीं है...
मैं हर रोज इसे महसूस करता हूं तब भी जब लोग मेरी किसी बात पर खिलखिलाते है क्योंकि मैं खुद कहता हूं कि The show must go on.
मैं हरदम मुस्कुराता हूं बाबा,
आंखों का पानी तो मैं कब का मार चुका हूं बस यह दिल में अंधकार है उसका कोई उपाय नहीं दिखता.....
डर एक बात का है कि यह अंधकार कहीं मेरी सोच के आगे न आ जाएं, कहीं यह अंधकार किसी और के जीवन पर भारी न पड़ जाएं.....
और सुनो बाबुल,
मैंने आज तक कोशिश की है कि जो आप चाहते थे वो करूं, वैसा ही बनूं!!
मैं पूरी ताकत से लगा हुआ हूं मगर कुछ बिखरता सा दिखता है मुझे यहां आंगन में,
कुछ मुरझाया सा लगता है वो फूल भी जो बस सात रंग की पंखुड़ियों से मिलकर बना है, मैंने बहुत कोशिश की है प्रेम का पानी, इज्जत का खाद, सुविधाओं की मिट्टी मगर....
मगर फूल फिर भी मुरझाया जाता है,
मैं अनुभव की हवा नहीं दे पाया हूं शायद... लाऊं कहा से?
कहीं पड़ा मिलता तो नहीं..
यह मुरझाता फूल बहुत तकलीफ़ देता है बाबा, मैं तो हरदम इसकी सुगंध चाहता था पर?
खैर,
आप भी क्या करो!!!
सुनो बाबा,
मैं ना फिर वही जिंदगी चाहता हूं, मैं फिर वही बचपन चाहता हूं, मैं फिर से दीपावली पर जलायें पटाखों से अधजले पटाखे ढूंढकर फोड़ने के लिए बेताब हूं,
मैं फिर से दीपावली पर बनी लापसी और चावल खाना चाहता हूं, मैं फिर से दीपावली की अगली सुबह जल्दी उठकर दिये इकट्ठे करना चाहता हूं ताकि तराजू बना सकूं.....
आप समझ रहे हैं ना,
मैं कोई जिद नहीं करूंगा वहां,
न नये कपड़ों की,
न नये जूतों की,
मैं स्कूल यूनिफॉर्म भी तीन चार साल तक चला लूंगा ना, मैं अपनी पढ़ाई पर भी पूरा ध्यान दूंगा....
पर.....
वो वक्त कहां लौटता है वो,
सुनो बाबा,
मैं हर उस आहट से जागता हूं कि शायद आप काम से लौट आये है, पर घड़ी बता रही होती है उस समय कि सुबह के 6 बजे है.....
और मैं,
सब भूलकर फिर भागने में लगता हूं बस एक ही बात दिमाग में रहती है कि शाम को फिर घर लौटना है....
.......
बाबा,
मैं हारने वालों में से नहीं हूं, पर बस कहीं उलझ कर रह गया हूं....
........
दियों के तराजू से चली जिंदगी,
ATM के शिकंजों में आ फँसी है।
दिनों दिन यें आंखें भी शुकुन के,
इंतजार में ही धँसी है।
........
हां,
सुनो बाबा,
मैं हर चेहरे पर खुशी देखना चाहता हूं, इसलिए अक्सर जोकर की तरह ही पेश आता हूं, नहीं दिखाता कि मेरे अंदर क्या चल रहा है......
बस एक लाइन कहता हूं...
The show must go on..
...
आपका
करन

19_10_2017____23:00PM

Wednesday 18 October 2017

A letter to swar by music 41

DEaR SwAr,
..............
नीम तले यह गहरी छाँव,
याद आ रहा तेरा गांव.......
.............
सीढ़ियों से उतरते चाँद को,
नज़रों से देखूं कि दिल से।
.............
यूं बार बार अपनी जुल्फों को छेड़ा न कर,
हम घायल तेरी नज़रों और कोई जुल्म न कर।
.............
सुनो स्वर,
सबसे पहले तो दीपावली के त्यौहार की अग्रिम शुभकामनाएं......
हां, तुम कहो न कहो पर मुझे पता है कि तुम आजकल बहुत बिजी रहती होगी, दीपावली की साफ सफाई, कॉलेज, स्कूल भी जाना.....
हां, तुम हमेशा की तरह ही मेरा यह खत भी नहीं पढ़ने वाली हो... जैसे ही तुम्हें खत मिला और तुम इसे तोड़ मरोड़ कर कचरे में डाल देने वाली हो... मगर, मैं तो तुम्हें लिखूंगा... मेरा तो यह जरूरी काम बन गया है ना जैसे कि श्वास लेना जरूरी है..
.......
हां तो सुनो,
मैं अभी बैठा था एक नीम के पेड़ की छांव में.....
अचानक से एक पता उपर से टूटकर कर चेहरे पर आकर गिरा, अब तुम सोचोगी कि यह तो कोई नई बात नहीं हुई क्योंकि पत्ते है तो उनको टूट कर गिरना ही है।
मगर,
मैं उस पत्ते को हाथ में लेकर कहीं दूर तुम्हारे ख्यालों के गांव में खो गया...
मुलाकातोंं के उस दौर में जहां चांद सीढ़ियों से उतरता था, जहां बादल सिर्फ नीम की छांव तले बिखरते थे, जहां बारिश ने गर्मी की तपती दुपहरी में भी सुकुन दिया था मुझको, जहां खुशबू मतलब कि बस......
कुछ तुम्हें भी याद आया होगा....
सीढ़ियां हां,
गिनती मुझे याद है अब भी उनकी पांच ही है ना शायद, हाथ में चाय के कप की ट्रे, पांच सीढ़ियां पांच मिनट.... क्या फुतीं थी ना...
अरे!! यह वाली चाय आपके लिए नहीं, फीकी थी ना... हां, एक कप और लाऊं?
मैं इस ड्रेस में कैसी लग रही हूं?
वो ड्रैस अच्छी थी कि यह?
अब का बताता कि ड्रेस तुम्हारे लिए है तो फिर?.......
खैर,
नीम!!!!!
हां!!! तुम अक्सर मुझे तुम्हारे आंगन वाले उस नीम के पेड़ के आसपास नजर आती थी ना,
कभी अपनी बहिन संग झूला झुलते,
कभी पकड़म पकड़ाई,
कभी उसी छांव तले होमवर्क में बिजी!!
तुम्हें याद है ना.....
एक बार तो मैं आया था अंदर तो तुम्हें इसका ध्यान ही नहीं था और झुला इतनी जोर से दरवाज़े की तरफ आया कि तुम्हारा दुपट्टा सीधे मेरे मुंह पर आया और वही उलझ कर रह गया...
और.....
आगे मैं क्या कहूं....
वक्त की सीनाज़ोरी न हो फिर से तुम्हें...........
दुपट्टा अपने हाथ से ओढ़ाना(मैं दुपट्टे में ओढ़नी देखता हूं जान) चाहता हूं, वैसे ही झूला झूलते हुए, वैसे ही झूले की रस्सी को पकड़कर, वैसे ही झूले की लकड़ी पर खड़े होकर......
मैं उस वक्त पता नहीं क्या सोचता रहा होगा, दुपट्टा ओढ़ाऊं कि बिखेरती जुल्फ़ों से खुशबू चुराऊं,
बादलों को कोई संदेश सुनाऊं या खुद को बारिश की तरह भिगो दूं....
तुम तो तब भी हैरान थी,
अब भी हो....
खैर,
तुमने उस दिन पता है ना नीम के पत्तों पर मेरा नाम लिखा था ओर मुझसे पूछा था कि कौन-सा सबसे अच्छा है।
अरे!! तुम्हें क्या बताता मैं कि तुम्हारा लिखा मेरा नाम अपने आप में लाजवाब है।
और........
देखो ना,
इस पत्ते ने मेरे चेहरे पर गिर कर मुझे फिर से वही पल याद दिलायें है,
मैंने उस पत्ते को गौर से देखा था कहीं तुमने तो नाम लिखकर नहीं भेजा पर वहां कोई नाम नहीं था
मैंने नीम नीचे गिरे हरेक पत्ते को हाथ में लेकर देखा पर किसी पत्ते पर नाम नहीं था... मैं भी कितना पागल हूं ना यह नीम का पेड़ अलग है वो तो तुम्हारे आंगन में है!!
और फिर.....
फिर मैं वहीं बैठ कर तुम्हें लिख रहा हूं कि...
अब मैं तुम्हें आने की नहीं कह रहा हूं दिल में जिस दिन लगे स्वागत है तुम्हारा!! दरवाजे अंतिम श्वास तक भी तुम्हारे लिए खुले रहेंगे।.....
हां,
मगर मैं आ रहा हूं फिर से,
बस झूला तैयार रखना,
दुपट्टा वहीं रखना....
सुन रहे हो ना......
.......
दीपोत्सव की ढेर सारी शुभकामनाओं और एक लवली बाइट के साथ
Yours
Music

©® जांगिड़ करन KK
18_10_2017___7:00AM

Some photographs are borrowed from Google with due thanks

Sunday 8 October 2017

A letter to swar by music 40

Dear swar,
........
चांद को तुम ढूंढती रहो आसमां में,
मैं तो तुम्हें देखता हूं मन की नजरों से।
........
कुछ बात तो है कि चांद झांक रहा है,
तुम्हें सताने का इरादा उसका भी नहीं।
.........
बेशक दुरियां जमाने भर की है मगर,
मेरे दिल में बसा चांद आज भी है।।।
..........
सुनो,
आज मैं तुम्हारे नाम से उन तमाम भारतीय नारियों को अपने पति या प्रेमी की ओर से इस खत के माध्यम से एक संदेश देना चाहता हूं.... संदेश क्या जो मैं अपने आसपास देखता हूं महसूस करता हूं वही सब खत में बयान करने जा रहा हूं....
इस खत में "स्वर" का संबोधन सभी महिलाओं के लिए है और भेजने वाले"संगीत" वो प्रेमी या पति जो वाकई दिल से अपने प्रेम को निभाते हैं......
..........
सुनो स्वर,
सबसे पहले तो तुम्हें आज करवा चौथ की दिल की अतल गहराई से हार्दिक शुभकामनाएं...
मुझे मालूम है कि तुम मुझसे कितना प्रेम करती हो, इस प्रेम का ऋण शायद मैं नहीं चुका सकता... हां, अपने लफ़्ज़ों में तुम्हें बयां करने की कोशिश कर सकता हूं......
.......
मुकम्मल मेरा हर एक पल तुमसे हुआ है,
मकान बनाया मैंने पर घर तुमसे हुआ है।
मैं कहीं भटकता फिरता आवारा था शायद,
जिंदगी का सही रास्ता हासिल तुमसे हुआ है।।
........
तो सुनो,
एक तो मैं बचपन से ऐसा था कि मुझे यूं लगता था कि मेरा क्या होने वाला है?
मैं जिस तरह से लापरवाह था तो ऐसा लगता कि हर जगह मुझे संभालने के लिए कौन तैयार रहेगा?
जिंदगी की घनी धूप में झुलसते पांवों को नमी कौन देगा?
मैं जब काम पर चला जाऊंगा तो पीछे मेरे बुढ़े मां बाप की देखभाल कौन करेगा?
कौन मेरे परदेश से लौटने का इंतजार करेगा?
........
और फिर,
वक्त के इस चक्र में तुमसे मुलाकात हुई!
मुझे अच्छी तरह से याद नहीं कि हम पहली बार कहां मिले? या कब मिलें? रिश्तों के गठबंधन के बाद ही मिलें या पहले?......
पर,
जब भी मिले मन में एक आशंका जरूर थी!
क्या तुम मेरे साथ निभा पाओगी?
क्या तुम्हें मेरी अव्यवस्थित सी जिंदगी रास आयेगी?
क्या तुम मेरे सपनों को समझकर मेरा साथ दे पाओगी?
क्या तुम मेरी जिंदगी के पन्नों पर प्यार का इकरनामा लिख पाओगी?
सारी शंकाओं को मन में लिए.....
जिंदगी के उस मोड़ पर मैंने तुम्हारे साथ आगे के सफर की तैयारी की... शंका हो या न हो चलना तो था।
सुनो जिंदगी,
(हां, तुम जिंदगी बन गई थी कारण तुम खुद ही देख लो आगे)
मगर तुमने आते ही मेरी जिंदगी के हर ख्वाब की राह आसान कर दी, मन की हर शंका का समाधान कर दिया, मैं तो बस सांस लें रहा था तुमने आकर असली मायने में जिंदगी की तरन्नूम बताई।
तुम्हें याद हो न हो मैं बताऊं तुम्हें आकर सबसे पहले तो मेरी अव्यवस्थित सी जिंदगी को सुव्यवस्थित करने का काम किया.....
मेरी दैनिक जीवन की हर एक समस्या को तुमने दूर किया...
सुबह उठने से पहले चाय नाश्ता तैयार करना,
मुझे अच्छी तरह से याद है बाथरूम में गर्म पानी और टॉवेल मेरे पहुंचने से पहले तैयार मिलना,
लंच बॉक्स समय पर तैयार वो इस हिदायत के साथ कि समय पर खा लेना,
शाम को घर पहुंचते ही चाय तैयार,
बैग, ड्रैस जूते सब व्यवस्थित....
और सबसे बड़ी मेरी चिंता थी कि आने वाली लड़की कैसी होगी? क्या मेरे बुढ़े मां बाप को साथ रखने पर राजी होगी?
मगर,
तुमने यह साबित कर दिया कि मेरी शंका निराधार थी!
मैं ऑफिस भी बेफिक्र होकर जाने लगा था.....
उस समय से लेकर आज तक तुमने मेरे और मेरे परिवार के लिए जो किया है ना.....
वाकई.... क्या कहूं अब?
बस तुमने दिल जीत लिया....
और सुनो,
तुम्हारी एक खासियत....
कम से कम डिमांड, तुम्हें मालूम था और अब भी है कि मैं ऑफिस से जो पेमेंट लाता हूं उससे घर कैसे मैनेज करना है? तुमने बताया था शुरू शुरू में कि तुम्हें बचपन से गहनों का बहुत शौक रहा है...
मैं चिंतित था कि तुम्हारी ख्वाहिश कैसे पुरी करूंगा?
पर.....
पर तुमने अपने आपको किस तरह मेरे घर के अनुरूप ढाल लिया...
न कोई एक्स्ट्रा डिमांड.. जो मिला उसी में संतुष्ट..
मैं तुम्हारी हर ख्वाहिश पूरी नहीं कर सका फिर तुम्हारे चेहरे पर हरदम मुस्कान ही रही....
सुनो जान,
इस सबके लिए दिल से थेंकु।
और हां,
जिंदगी के सफर में तुम मेरे लिए जैसे पांवों का मरहम बनकर आई...
मेरे तप्त ललाट पर तुम बर्फ का सेक बनी हर बार ही,
जिंदगी की धूप में छांव की तरह साथ रही हो तुम...
और मैं,
तुम्हें कुछ नहीं दें सका आज तक भी....
बस...
तुम्हारे लिए दो शब्द हर ही,
और आज भी
यहीं कर रहा हूं मैं...
तुम बहुत सुंदर हो...
तुम बहुत अच्छी हो....
.......
तुम आज मेरी लंबी उम्र के लिए व्रत रख रही हो मेरी तो एक प्रार्थना है कि मैं जब रहूं तुम साथ रहो...
.....
Dil se
Love you Jaan
.......
With love
Yours
Music(संगीत)

©® जांगिड़ करन kk
08_10_2017__18:00PM

Saturday 7 October 2017

Alone boy 25

कितने
क़रीने से
सजाता हूं मैं,
नरम मिट्टी से
सपने.....
एक कौने में
खुशबू,
दुसरे में
समर्पण,
तीसरा कौना
चाहत का,
चौथे में
जिंदगी......
बस इंतजार
किया था
प्रेम की
बूंदों का,
सपनों को
जमाने खातिर
मोहब्बत की
थपथपाहट का....
पर
वक्त जानें क्यों
अंधड़
लें आया
नफ़रत की
और
बिखेर गया
सपनों को,
ध्वस्त किया
अरमानों के
घरोदें को.....
मैं अवाक्
बस देखता रहा,
भावशून्य बन.....
मगर आंखों में
फिर से
वहीं
सपने
सजने लगे थे....
मालूम है मुझे
यही जिंदगी है!
......
©® Karan DC KK
07_10_2017__14:00PM

Thursday 5 October 2017

A letter to swar by music 39

DeAr SwAr,
.........
हर सफर का मकसद हो यह जरूरी तो नहीं, कभी कभी तेरे शहर बस युही आ ही जाता हूं, हां...
कुछ यादें पुकारती है,
कोई जगह निहारती है,
कोई खोया हुआ ढूंढता है मुझको......
और फिर.....
मेरी आदत तुम्हें मालूम है ना....
एक सफर में जिंदगी का कोई सार न हो अक्सर तुमने भी देखा होगा कि उस सफर में लोग नहीं जाते हैं पर मैं ऐसा नहीं हूं, जो दिल की आवाज आई वहीं कर लेता हूं मैं...
नफे नुकसान की बात दिल कभी नहीं देखता!
आसान नहीं दिल को समझाना...
इसलिए फिर मैं निकल पड़ता हूं तेरे शहर की ओर....
जानें क्यों?
पर!!
बस निकल पड़ता हूं.......
......
अजनबी नहीं है ये रास्ते अब, हर जगह, हर स्टेशन, हर नदी नाला, हरेक ब्रेकर और तो और सड़क के गड्ढे तक याद है मुझे..... कोई आश्चर्य की बात नहीं यह!
.......
खैर सुनो,
मैं निकल पड़ा हूं घर से..
लग्जरी बस की सीट पर बैठकर.... मैं स्लीपर काहें नहीं लेता?
मालूम है ना तुम्हें (बाहर के नजारे न देख पाता मैं क्योंकि स्लीपर में तो नींद आ जाती है ना).......
अंधेरा होता है उस वक्त मगर क्योंकि मुझे सब याद है तो मैं अपने आप रास्ते भर नजारें देख लेता हूं।
......
तुम्हें बता दूं कि जब बस रवाना हुई तो शुरू से ही मेरी नज़र तुम्हारे शहर की ओर ही थी जैसे कि अभी आ ही जानें वाला है शहर, जबकि मुझे मालूम था कि सफर काफी लंबा होने वाला था!!
मैं पूरे सफर में आगे से आगे से आने वाले नजारों को देखता रहा......
सबसे पहले तो सड़क के दोनों तरफ मेरे गांव के बाहर से पेड़ पौधे नज़र आ रहे थे क्योंकि अभी अभी बारिश का दौर खत्म ही हुआ ही है तो हरियाली बहुत ही सुन्दर, पेड़ों के झुरमुट से चिड़िया की आवाजें....
वाकई, यात्रा मजेदार लगने लगी!
फिर जंगल ही जंगल.....
पत्थर,
चट्टानें......
मिट्टी के पहाड़!!!
और फिर एक विशाल नदी..... नदी क्या यह तो एक समंदर ही जैसी है ना... तुम्हें यहां पर आते वक्त बहुत डर लगता था ना कि बस कहीं अनियंत्रित होकर इसमें न चली जाएं.... तुम मेरी बाहों में छुपकर बैठ जाती थी ना उस वक्त...
और मैं असंमजस में रहता कि बाहर नदी की खूबसूरत धारा को निहारूं या तुम्हारे होने का अहसास खुद को कराऊं?
और तुम्हें मालूम है ना.....
चलो जानें भी दो...
खैर सुनो,
मैंने नदी की इस धारा को उसी वेग से बहते देखा जिस वेग से वक्त ने करवट ले ली थी.... बाहर नजारा खूबसूरत था पर मन में कुछ अजीब बैचेनी थी, तुम साथ नहीं थी ना....
खैर कुछ देर बाद गाड़ी फिर से एक हाइवे पर चल पड़ी....
अब कोई शहर आने वाला था यहां पर बस का स्टॉप रहता कुछ देर का, चाय पानी का .....
धीरे शहर की बिल्डिंगें नजर आने लगी, और बस स्टॉप पर बस रुक गई... पर मेरा मूड बिल्कुल भी उतरने का नहीं था मैं बस में बैठा रहा, में तो बस तुम्हारे शहर का इंतजार कर रहा था..
कुछ देर बाद फिर यात्रा शुरू हुई....
अब शहर के बाहर से फिर जंगल शुरू हो गया.....
दोनों तरफ लंबे लंबे वृक्ष...
घांस-फूस,
इसमें भागते हुए खरगोश......
कुछ याद दिलाते हैं...
खैर.....
एक और शहर आया...
तुम्हारे शहर से बड़ा....
पर बस यहां नहीं रूकी बाहर से बाईपास से निकल गई... अच्छा हुआ!....
अब आगे चट्टानों और पहाड़ों का क्षेत्र था....
याद होगी न तुम्हें ये चट्टानें...
और.....
यह क्या अचानक एक झटके के साथ ही बस रुक गई थी...
सबको नीचे उतारा गया..
पहिया पंचर था....
टाइम लगना था , मैंने एक यात्री को लिया और चट्टानों के ऊपर गया.... तुम्हें बता दूं कि वहां फोटो खींचे...
और
बस ठीक होने के बाद फिर से रवाना हुई....
अब एक मोड़ आया.....
जबरदस्त मोड़,
यहीं मेरी जिंदगी का भी सबसे हसीन मोड़ था....
मैं आज भी उस दुकान को निहारते हुए जाता हूं।
और उस मोड़ के बाद से ही तुम्हारे शहर की मुख्य सड़क शुरू होती है।
हां, सड़क अब बहुत खराब हो गई है ना... धूल उड़ाने लगी अब बस भी....
शहर के थोड़ी दूर पहले एक विशाल सागर जैसा कुछ आया था जिसकी लहरें तुम्हारे शहर को छूती है,
फिर खेल स्टेडियम........
और फिर,
तुम्हारे शहर में आखिरकार हम पहुंच ही गए...
सड़क के दोनों तरफ ऊंची ऊंची अट्टालिकाएं........
सड़क कितनी चौड़ी और शानदार,
सड़क के बीचों-बीच फूलों वाले पौधों की कतार,
नजारों की जैसे झड़ी लग गई थी.....
मुझे सब मालूम था पर हर बार सबकुछ नया सा लगता है...
अरे.....
तुम्हारा कॉलेज भी आ गया....
मैं वहीं उतर गया था,
शायद तुम कॉलेज में हो तो.....
लेकिन पता किया कि तुम वहां नहीं हो...
तुम्हारी सहेलियों से पूछा तो पता चला कि तुम पास ही एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने भी जाती हो...
सोचा कि शायद वहां हो तो वहां भी गया, वहां से मालूम हुआ कि तुम्हारे परिवार में किसी के कोई फंक्शन था तो तुम स्कूल भी नहीं आई थी!!
खैर,
मैं तो निकल पड़ा तुम्हारी एक झलक पाने.....
फटाफट रिक्शा पकड़ के आ गया उन गलियों में, सजावट काफी ज्यादा कर रखी थी मुझे अचानक से लगा कि मैं कहीं गलत जगह तो नहीं आ गया हूं....
पर तभी तुम घर से निकलकर सामने आ गई....
जानें किस काम से आई थी पर मुझे यूं सामने देखकर तुम हैरान हो गई थी ना.....
तुम्हें यकीन नहीं हो रहा था कि मैं ही था वहां...
खैर,
शायद तुम बहुत जल्दी में थी कोई काम होगा और मुझे भी कहां होश रहा जो कुछ पूछता, मैं तो बस तुम्हें देखता ही रहा जब तक कि तुम सामने से हट न गई....
वाह....
बाल आज भी उतने ही लंबे और घने बस मन में एक ही ख्वाब रहा है कि इनकी छांव तले सोया रहूं।
होठों पर वही नजाकत....
अरे यह क्या दुपट्टा उसी रंग का.... तुम्हें उस रंग से इतनी मोहब्बत कैसे हो गई...
कानों में आज भी वो ही बालियां....
और हेयर पिन भी उसी स्टाइल में जिस स्टाइल में जैसे कि मैंने तुम्हें एक बार लगाकर बताई थी मतलब कि तुम्हें पहले से मालूम था कि मैं आने वाला हूं वहां...
फिर.... फिर ऐसा नाटक क्यों जैसे कि तुम्हें कुछ मालूम न हो......
हां, तुम्हारी आदत है मुझे चिढ़ाने की जायेगी थोड़े ही।
खैर, तुम इतनी जल्दी में थी कि मुझे बिना कुछ बोले ही भाग गई... मैं कुछ देर तो वहां खड़ा रहा पर ज्यादा देर खड़ा रहता तो लोग क्या समझते इसलिए मैंने लौट जाना ही उचित समझा...
क्योंकि और तो कोई मुझे जानता ही नहीं था ना...
फिर पीछे से तुम फोन पर चिल्लाई तो मैं क्या करूं?
मैं बिन बुलाए कैसे रूकता?
खैर सुनो,
आज जब मैं लिख रहा हूं तो जहन में वो पल मौजूद है, वहीं मासूम चेहरा, नटखट अदा, लंबे घने बाल...
बिल्कुल चाँद....
अरे हां, याद आया!!!!
आज शरद पुर्णिमा है
मैं तुम्हारी तस्वीर देखूं कि चाँद?
हां,
कोशिश करता हूं कि कुछ तुम्हारी नजाकत को बयां करूं!
चलो कोशिश करता हूं मैं....

With love
Yours
Music
05_10_2017___19:25PM

©® जांगिड़ करन KK

Alone boy 31

मैं अंधेरे की नियति मुझे चांद से नफरत है...... मैं आसमां नहीं देखता अब रोज रोज, यहां तक कि मैं तो चांदनी रात देख बंद कमरे में दुबक जाता हूं,...