Monday 31 August 2015

हार-जीत

साथ मैनें दिया कभी...अधर्म का तो नहीं,
कोई दुर्योधन भी तो...मेरा मित्र नहीं|
ना मैनें किया है कभी..अपमान गुरू का,
कभी पांचाली को भी तो..किया लज्जित नहीं||

फिर भी छीनने को आतुर है..अस्त्र शस्त्र मेरे,
श्राप से अपने धँसाने को आतुर है कोई..पहिये रथ के मेरे|
किया गया हुँ बाहर प्रतियोगिता से..क्योंकि राजकुमार नहीं हुँ ना,
बार बार कहकर सूत पुत्र मुझे..घावों पर नमक छिड़का गया है मेरे||

हो परिस्थिति चाहे कुछ भी..मुझे तो करना कर्म है,
मैं निहत्था फिर भी...ना उनकी आँख में लाज शर्म है|
शायद विधाता को भी..उनकी जीत पे शर्म आयेगी नहीं,
हाँ मैं कर्ण तो नहीं पर करन तो हुँ...और हारना ही शायद अब मेरा धर्म है||
©® Karan Dc

Wednesday 26 August 2015

वहीं मोड़

वो जो मोड़ है ना, उस मोड़ की बात करते है,
मैं रूका था तेरे लिये, उस इंतजार की बात करते है|

तुमने जताई थी अपनी चाहत जिस तरह से,
उस प्यारी सी मासूम चाहत की बात करते है|

जिन जुल्फों के साये ने बचाया था जमाने की धूप से,
लहराती काली जुल्फों की शीतलता की बात करते है|

तुम्हारी इन नीली नीली आँखों का क्या कहना,
झील सी गहरी आँखों में डुबने की बात करते है|

तुम्हारे चेहरे की जो कोमल सी सादगी है,
उस चेहरे की प्यारी सी मुस्कान की बात करते है|

तेरी आवाज में जादु है रुमानियत का सा,
सुन कोकिला तेरे मधुर संगीत की बात करते है|

कोई ख्वाब लिये उस मोड़ पे अभी तक खड़ा है 'करन',
ओ चिड़िया उस ख्वाब को तुझ संग बाँटने की बात करते है||
©® karan dc

Friday 21 August 2015

ओ हमराही

मैं तो अकेला ही
अपनी मंजिल की और था
तुमने ही तो
कहाँ था
हमारी भी मंजिल वहीं है
और फिर
तुम हो लिये साथ मेरे
पकड़ के हाथ मेरा
कहाँ था तुमने
साथ रहेंगे
साथ चलेंगे
बनेंगे एक दुसरे का सहारा
हाँ याद है ना तुमको
मैनें भी दिया था हाथ अपना
ये राहें युहीं कटती रहीं
तेरे साथ
तेरे साथ ने
कितना बदल दिया
है मुझको
बन गई हो तुम
ताकत मेरी
तुम्हारे साथ
ये राहें भी
हो गई है कितनी आसान
वक्त का कुछ
पता ही नही चलता
बस चाहत इतनी सी है
गुजरता जायें
यह वक्त युहीं तेरे साथ
हाँ तेरा साथ
कितना प्यारा है
कितनी प्यारी है तेरी मुस्कान
हमराही
©® karan dc

Tuesday 18 August 2015

ये कैसी आजादी?

यहाँ बचपन कहीं पे चाय के ठैले पे कैद है,
तो कहीं खिलोने की दुकान पर खिलोनों को घुरते हुए कैद है|
कहीं पे बचपन मजबूर है करने को मजदूरी,
कहीं पे बचपन अखबार वाले छोटु के रूप में कैद है||

कोई युवा यहाँ किसी की बाहों में कैद है,
तो कहीं पे रोजगार की तलाश में कैद है|
कहीं पे दबा हुआ है कुछ अरमानों की चाहत में,
तो कहीं किसी बेदर्दी की यादों में कैद है||

यहाँ के अधेड़ दिनभर के कामकाज में कैद है,
तो कोई यहाँ ऑफिस की भागदौड़ में कैद है|
इन पर बोझ है बच्चों की ख्वाहिशे पुरी करने का,
तो कोई बिटिया के घर संसार के सपनों में कैद है||

बुढ़ापा यहाँ वृद्धाश्रमों में कैद है,
तो कहीं पे बहु के तानों में कैद है|
कोई तड़पता है यहाँ खाँसी की दवाई के लिये,
तो कहीं पे दो टूक रोटी के लिये कैद है||

यहाँ औरत एक मशीन की तरह कैद है,
तो किसी के सपने दहेज की प्रताड़ना में कैद है|
कहीं पे डर से सहमी हुई सी है दामिनी,
तो कोई तेजाबी हमले के भय में कैद है||

यह कैसी आजादी? जहाँ हर कोई कैद है,
मैं समझा नहीं अब तक, क्यों यह मासुमियत सी कैद है|
खुद 'करन' को गुमान था खुद की आजादी का,
आज वो भी एक परिंदे की जद में कैद है||
©® Karan dc

Thursday 13 August 2015

न जाने क्यों

रेत पर अक्सर
लिख देती है वो
नाम मेरा
फिर कुछ बुदबुदाती है
न जाने क्या?
फिर अचानक
मिटा देती है
हथेली से नाम मेरा
फिर से लिख देती है
वही नाम
फिर बुदबुदाना
हाँ इस बार
मुसकुराहट है चेहरे पे उसके
न जाने क्यों?
मैं दूर से ही
देखता हुँ सबकुछ
और मुस्कुरा देता हुँ
मन ही मन में
न जाने क्यों?
©® karan DC

Sunday 9 August 2015

सुनो तो जरा

अपने चेहरे से दुपट्टा हटाओ तो जरा,
हमें चाँद का गुरूर तोड़ने दो जरा|

अपनी चाल मस्तानी दिखाओ तो,
बल खाती नदी से कुछ बोलने दो जरा|

इन झील सी आँखों को खोलो तो,
मुझे इनकी गहराई में डुबने दो जरा|

अपनी खुली जुल्फों को भी छितराओ तो,
इन बादलों को भी भ्रम में डालने दो जरा|

यह अपनी पायल की छमछम सुना दो मुझे,
दिल में बसे गीत को बाहर निकालने दो जरा|

ओ चिड़िया अब थोड़ा सा गुनगुना भी दो,
'करन' को तो बस स्वर तेरा ही सुनने दो जरा|

©®jangir karan dc

Thursday 6 August 2015

बचपन सुहाना

डालकर बोझ स्वार्थ का मत परेशान कीजिये,
बच्चा हुँ साहब बच्चा ही रहने दीजिये|

जमाने की खौफ भरी दास्तानों से डर लगता है,
नानी की परियों वाली कहानी में डुबा रहने दीजिये|

ये खेल रिश्तों की कड़वाहट का मेरे किस काम का,
छुटकी संग लड़ाई का प्यारा खेल खेलने दीजिये|

बोझ जिम्मेदारियों का बर्दाश्त नहीं होता मुझसे,
वो बस्ते का बोझ ही मेरे कंधों पे रहने दीजिये|

लोगों के ताने आखिर कब तक सहता रहुँ मैं
पिता की प्यारी सी डाँट ही मेरे हिस्से में रहने दीजिये|

निभाने की भागदौड़ में झुलसता ही रहा हुँ 'करन'
माँ के आँचल की ठण्डी छाँव में सोया रहने दीजिये|

Monday 3 August 2015

जागृति

तु होना ना निराश इन अंधेरों से,
इस रात की कोई सुबह तो है|

मानाकि स्वार्थ के समंदर में डुबे है सब यहाँ,
कहीं निस्वार्थ भावना का झरना भी तो है|

दम तोड़ते दिखते है रिश्ते सभी इस भागदौड़ में,
कहीं पे रिश्तों में सुनहरी सी पदचाप भी तो है|

है अमीरों की बस्ती ही ज्यादा रोशन यहाँ,
गुदड़ी के लालों का कहीं पे उजाला भी तो है|

मानाकि हरदम हीं जमाने ने दी है ठोकरें 'करन'
इन्हीं ठोकरों में कहीं मील का पत्थर भी तो है|
©® jangir karan dc

Sunday 2 August 2015

बस तु हीं तु

ना नींद आती है रातों को, ना दिन में चैन आता है,
सखी री यह क्या हुआ जाता है, हर तरफ वहीं नजर क्यों आता है|

क्यों आज मुझे मौसम भी बेईमान सा लगे है,
यह चाँद भी जरा उँघता हुआ सा लगे है|
क्यों होती है तमन्ना हरदम ही जुल्फें खुली रखने की,
ये मेरा दिल भी क्यों मचलता हुआ सा लगे है||
सखी री यह...................................................

ये हवायें भी क्यों मुझसे बदमाशियाँ सी करती है,
ये मेरी चुनर भी बार बार क्यों जाती सरकती है|
क्यों छा गई है अजब सी लाली मेरे गालों पे,
ये मेरी आँखे भी क्यों उसके दीदार को तरसती है||
सखी री यह............................................

ये मेरे हौंठ भी क्यों लाल सुर्ख हुए जाते है,
ये मेरे कंगन भी क्यों बेवजह खनखनाते है|
क्यों हर पल ही छाई रहती है मेरे तन में मस्ती सी,
क्यों मेरे लब हर पल उसी का नाम गुनगुनाते है||
सखी री यह.............................................

जिंदगी क्यों पहले से ज्यादा हसीन सी लगती है,
क्यों मैं हर पल ही ख्वाबों में खोई सी रहती हुँ|
क्या मुझको मुझसे ही चुराने लगा है करन,
मैं प्रीत कर बैठी सखी आज तुझे दिल की बात कहती हुँ||
सखी री यह.....
©® jangir karan dc

Alone boy 31

मैं अंधेरे की नियति मुझे चांद से नफरत है...... मैं आसमां नहीं देखता अब रोज रोज, यहां तक कि मैं तो चांदनी रात देख बंद कमरे में दुबक जाता हूं,...