Thursday 17 March 2016

तन्हाई की रात

तन्हाई की रात ये कैसी भारी सी है,
अरमानों पर चलती मेरे आरी सी है।

सूरज से दूर भागता है जुगनु हरदम,
दोनों में किस तरह की यारी सी है।

मैं ठहरा हुँ परिंदा एक जख्मी सा,
मोहब्बत तेरी ऊँची अट्टारी सी है।

क्यों किसी के इंतजार में बैठा रहता हुँ,
काटे मुझको वक्त की तलवार दुधारी सी है।

कृष्णा तुम भी गिन गिन के ले रहे हो बदलें,
शायद मुझ पर पिछले जन्म की ऊधारी सी है।

एक तो 'स्वर' की परीक्षा है सर पे 'करन',
और मौसम में छाई ये कैसी खुमारी सी है।
©® जाँगीड़ करन
17/03/2016_19:30 evening

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