Wednesday 28 September 2016

समर्पण

खुद से  कब  का हार चुका हुँ,
खुद  को खुद  से  हर चुका हुँ।

हर शख्स  में  जिंदा रहता हुँ,
खुद में  कब  का मर चुका हुँ।

तुफान से बेखबर मैं नाविक हुँ,
हाथ में पतवार को धर चुका हुँ।

तुम मुस्कान ही देख पा रहे हो ना,
आँख में आसुँओं को मार चुका हुँ।

खुशियों का गुलदस्ताँ तुम ही रख लो,
मैं गम से अपना दामन भर चुका हुँ।

और भला क्या चाहिये 'करन' तुमको,
मैं  स्वर भी  तो अर्पण  कर  चुका  हुँ।
©®जाँगीड़ करन
28.09.2016....20:40PM
फोटो -- साभार गुगल

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