मैं धरा की धूल विचलित सी
कहीं उड़ती फिरूँ,
बेखबर सी,
बेबस सी,
मैं चुभ रही
कितनी आँखों को।
बस तुम्हारी मोहब्बत की
बारिश का
इंतजार करूँ।
तुम बनके जल
बरस जाओ,
मैं जमीं पर
जम जाऊँ।
तुम बहना नदी में,
मैं संग तेरे सरका करूँ,
पहुँच जाऊँ मैं जब
समंदर में
कोई डर नहीं
फिर
तुम्हारे बिछुड़ने का
सदा के लिये
तुम वहाँ रहोगे
है ना....
ओ जल मेरे!!
मैं धरा की धूल,
तेरा इंतजार करूँ।
©® जाँगीड़ करन kk
29/10/2016//...7:00AM
और मैं, मेरी चिंता न कर मैं तो कर्ण हुँ हारकर भी अमर होना जानता हुँ
Saturday 29 October 2016
धूल और जल
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