Thursday 24 November 2016

थकान

मैं जेठ की
तपती दोपहरी में भी
एक बूँद की आस में
घूरता हुँ आसमान.....

हर दौर में यहीं हुआ
मोहब्बत के दुश्मनों
से तंग आकर
हार गये सब अरमान....

तुम युँ चिंता न करो
अपने पर ही अड़े रहो
दिखता है आँखों में तुम्हारी
मुझे वो चढ़ता परवान....

रातें बात बहुत करती है
मगर तन्हाई ही लगती है
बंद आँखों से तब
करता हुँ मैं तेरा ध्यान...

अहसासों की परवाह
कब तुमने की है
बस नफरत का ही
करते हो संधान...

वक्त की हर चाल से
मात खा रहा हुँ मैं
हारना मगर फितरत नहीं
बस हुँ मैं हैरान....

मुझे मालुम है कि
मैं भटका हुआ राही हुँ
मगर मैं कर्ण हुँ
नहीं है मेरे पैरों में थकान।
©® जाँगीड़ करन kk
23_11_2016-- 11:00 pm

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