सियासती लोग कब देश की सोची है।
अपनी जीत की बस तरकीब सोची है।
हमेशा अपने ही घर भरते रहे हो तुम,
कब गरीबों के हालात की सोची है।
मुश्किलें उस राह की तुम क्या जानो,
कब तुमने चाँद तक जाने की सोची है।
मैं वक्त से आँख मिलाकर चल पड़ा हुँ,
मैनें कर्म को अपनी तकदीर सोची है।
तु हकीकत में कहीं और का मुसाफिर है,
मैनें पर संग मेरे तेरी ही तस्वीर सोची है।
मैं अपनी ही मौज का दीवाना हुँ करन,
कब मैनें जमाने से बगावत की सोची है।
©® जाँगीड़ करन kk
04/11/2016__20:00PM
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