Thursday 12 January 2017

A letter to swar by music 19

Dear SWAR,
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... राहों की बात.. दिल के साथ....
... कुछ मिठ्ठी याद.. और तेरा हाथ....
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...पदचिह्नों की टोह... ऐसे बैकल हुँ....
...बिसरा बैठा मैं... सारे होश हवास....
।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।

सुनो पार्टनर,
यह वक्त ही है जो हर एक को अलग अलग अहसास कराता है.. कभी मंजिल से दूर भटकाता है तो कभी भटके हुए राही को मंजिल दिखाता है और हम तो मुसाफिर है.. इसी समय की चाल के साथ कदमताल करते हुए चलते रहने की कोशिश भर करते है। एक और बात है कि यह वक्त ही तय करता है कि सफर में हमराही कौन होगा? कौन, कब, किस मोड़ पे साथ छोड़ जायेगा? यह सब केवल और केवल वक्त के हाथ में है।
और सुनो......
यह दिसम्बर की सर्दी है, गुलाबी से कुछ ज्यादा असर दिखाने लगी है.. सुबह उठकर रजाई से बाहर निकलता हूं तो सर्दी का असर मुंह पर ऐसे होता कि मुझे लगता है जैसे तुमने छु लिया हो अचानक से.. और मैं किसी ख्याल में खोया अचानक तंद्रा से जाग जाता हुँ.... हां...
ख्याल भी कुछ कुछ ऐसा था.........
शरद ऋतु के साथ ही समंदर भी अब शांत रहने लगा, मगर यह शांति कब तक रहनी है, यह शांति भी संकेत है आने वाले वक्त की, शायद आने वाले तुफान की....
वैसे यह सब छोड़ो!!!! तुम अपना ख्याल रखना.. इस शीत ऋतु के कारण तुम्हारे चेहरे चेहरे की रौनक फीकी न पड़ जायें.. शीत ऋतु की यह कठोरता तुम्हारी कोमल त्वचा को नुकसान नहीं पहुंचा दें... यह सर्दी तुम्हारी आँखों की चमक फीकी न कर दें।
और सुनो जाना,
इधर यह वक्त की ही कारिगिरी है या कुछ और पता नहीं..... इस शांत समंदर के किनारे एक नाव देखी जो शायद छूटने को है... और हाँ!! कल रात ही मैनें सपने में ऐसी नाव देखी थी जो लोगों को अपनी मंजिल तक पहुंचाने का काम करती है, जब स्वप्न वाली बात को गौर से सोचा तो सामने पड़ी नाव के बारे में यही ख्याल बना कि शायद यह नाव मेरा ही इंतजार कर रही है, और अपनी मंजिल तक कौन नहीं पहुंचना चाहेगा??
मैं नाव की तरफ चल पड़ा... ज्यों-ज्यों पास गया तो स्वप्न की पूरी घटना दिमाग में और ज्यादा साफ होती गई.....
नाव खुद इशारा करके मुझे बुला रही थी.. और मैं फटाफट नाव में बैठ गया.... अब नाव रवाना होने वाली थी, और इस पर बैठने मात्र से ही मंजिल साफ दिखाई देने लगी थी.....
लंगर उठाया जाने लगा.....
अचानक मुझे ख्याल आया कि मंजिल तो मिल जायेगी मगर मैं वहां जाकर करूंगा क्या? बिन तुम्हारे वो मंजिल किस काम की।
हाँ......
सुनो पार्टनर!!!
मुझे नहीं चाहिए वो मंजिल, वहां अकेला क्या करूँगा। मंजिल मिलने की खुशी किसको बताऊंगा.... जब वहां मुझे सफलता के अलावा कुछ नहीं मिलना है तो वहां क्यों जाऊं? वो एकांत मुझसे सहा नहीं जायेगा....
और यह सोचकर मैं वापस नाव से कूद गया..
हाँ!!! जाना..... मैं यहीं, इन रास्तों पर ही भटकना चाहता हुँ, तुम्हारी तलाश में ही...
यहां कभी न कभी तुम्हारे आने की उम्मीद तो है.....
.............
मंजिल से जिंदगी का कोई मोह नहीं अब,
तेरे  सिवा दुनियां  से कोई चाह नहीं अब।
रास्तों में भटकते हुए इक उम्मीद है स्वर,
संगीत  में मेरे  तुझ सा साज नहीं अब।।
©®जाँगीड़ करन kk
12/01/2017__18:00pm

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